जीवन-श्रृंखला की समझ - ओशो
प्रिय, हसुमति,
प्रेम।
असंभव भी असंभव नहीं है। बस संकल्प चाहिए। और संभव भी असंभव हो जाता है। बस, संकल्पहीनता चाहिए। जगत जिसमें हम जीते हैं. वह स्वयं का ही निर्माण है। लेकिन, वीज बोने और फसल आने मग समय के अंतराल से बड़ी भांति हो जाती है।
कारण (बनेम) और कार्य (ममिवज) के जुड़े हुए न दिखाई देने से चित्त जिसे सहज ही समझ सकता था, उसे भी नहीं समझ पाता है। लेकिन, टूटा हुआ और अशृंखला कुछ भी नहीं है। जो कड़ियां (ऊपेपदह डपदो) दिखाई नहीं पड़ती हैं, वे भी हैं, और थोड़े ही गहरे निर क्षिण के सामने प्रकट हो जाती हैं। जीवन शृंखला की समझ ही शांति का द्वार है। प्रकाश बहुत निकट है, लेकिन वह भी खोजने वाले की प्रतीक्षा करता है।
रजनीश के प्रणाम
१९-११-१९७० प्रति : कूमारी हसुमति एच, दलाल, लाड निवास, ३ रा माला, रूम नं. २६, अर्धेश्वर दादी स्ट्रीट, बंबई-४
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