जीवन-संगीत - ओशो
प्यारी संगीता,
प्रेम।
आकाश में चांद उगे तब उसे एक टक निहारना-शेष सब भूल कर। स्वयं को भी भूलकर। तव ही तू जानेगी उस संगीत को जो कि स्वरहीन है। और तब भोर का सूर्य जगे तब पृथ्वी पर सिर टके उसके प्रणाम में खो जाना। तव ही तू जानेगी उस संगीत को कि मनुष्य निर्मित नहीं है। और जव वृक्षों पर फूल खिलें तव हवा के झोंको में उनके साथ नाचना फूल ही वनक र। तव ही तू जानेगी उस संगीत को जो कि स्वयं के अंतस्तल में ही जन्मता है। और जो ऐसे संगीत को पहचान लेता है, वह जीवन को ही पहचान लेता है। जीवन संगीत का ही दूसरा नाम परमात्मा है।
रजनीश के प्रणाम
१४-११-७० प्रति : चि. संगीता खाबिया, खाविया सदन, चौमुखी पूल, रतलाम म. प्र.
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