साक्षी की आंखें - ओशो
सुश्री जया जी,
प्रणाम।
मैं वाहर था : मेरे पीछे घूमता हुआ आपका पत्र मुझे यात्रा में मिला। उसे पा कर आनंद हुआ है। जीवन मुझे आनंद से भरा दीखता है। पर उसे देख पाने की आंखें न होने से हम उससे वंचित रह जाते हैं। ये आंखें पैदा की जा सकती है : शायद पैद | करना कहना ठीक नहीं है : वे हैं और केवल उन्हें खोलने भर की ही बात है और परिणाम में सब कुछ बदल जाता है। ध्यान से यह खोलना पूरा होता है। ध्यान का अ र्थ है : शांति : शून्यता। यह शून्यता मौजूद पर विचार प्रवाह से, मन से ढंकी है। विच र के जाते ही वह उदघाटित हो जाती है। पूरी विचार प्रवाह से मुक्त होना कठिन द खिता है पर बहुत सरल है। यह मन बहुत चंचल दीखता है पर बहुत ही आसानी से रुक जाता है। इसे पार कर जाने की कुंजी साक्षी भाव है। मन के प्रति साक्षी होना है , द्रष्टा बनना है : इसे देखना है : केवल देखना है और यह साक्षी वोध जिस क्षण उप लब्ध हो जाता है उसी क्षण विचार से मुक्ति हो जाती है। विचार मुक्त होते ही आनं द के द्वार खूल जाते हैं और यहां जगत एक नया जगत हो जाता है। ध्यान को चलाए चलें-परिणाम आहिस्ता-आहिस्ता आएंगे। उनकी चिंता नहीं करनी है । उनका आना निश्चित है। मेरा वंवई आना अभी तय नहीं है। तय होते ही सूचित करूंगा। सबको मेरे विनम्र प्रणाम ।
रजनीश के प्रणाम
२०-१०-१९६२ प्रति : सुश्री जया शाह, वंबई
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