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    ध्यान-अप्रयास, अनभ्यास से - ओशो

    Meditatingly-unceasingly-Osho


    श्रीमती जया बहिन, 

        प्रणाम। 

                आपका स्नेह पूर्ण पत्र पाकर अनुगृहीत हूं। ध्यान कर रही है; यह आनंद की बात है। ध्यान में कुछ पाने का विचार छोड़ दें; बस उसे सहज ही करती चलें-जो होता है वह अपने से होता है। किसी दिन अनायास स व हो जाता है। ध्यान की उपलब्धि हमारे प्रयास की बात नहीं; वरन प्रयास वाधा है। प्रयास में, प्रयत्न में, अभ्यास में एक तनाव है। कुछ पाने की-शांति पाने की आकांक्षा भी-अशांति है। यह सव तनाव नहीं रखना है। इस तनाव के जाते ही एक अलौकिक शांति का अवतरण हो जाता है। यह भाव छोड़ दे कि “मैं कुछ कर रही हूं" यही समझें कि “मैं अपने को छोड़ रही हूं उसके हाथों में जो कि है।” छोड़ दें-एकदम छो. ड दें और छोड़ते ही शून्यता आ जाती है। शरीर और श्वास शिथिल हो रहे हैं : मन भी होगा। मन भी चला जाता है और तब जो होता है वह शब्दों में नहीं बंधता है। मैं जानता हूं कि यह आपको होने को है, इला को भी होने को है-वस बढ़ती चलें, सहज और निष्प्रयोजन। फिर मैं आने को हूं तब तक जो मैं कहां हूं उसे शांत करते रहना है। सबको मेरे विनम्र प्रणाम कहें-और जब भी मन हो तो पत्र दें। मैं पूर्ण आनंद में हूं।



    रजनीश के प्रणाम
    ५-१०-१९६२ (दोपहर) प्रति : सुश्री जया वहिन शाह, बंबई

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