सहज निवृत्ति-प्रवृत्ति मग जागने से - ओशो
प्रिय जया वहिन,
स्नेह।
मैं आनंद में हूं। कितने दिनों से पत्र लिखना चाह रहा था पर अति व्यस्तता के कारण नहीं नहीं लिख सका। शुभकामनाएं तो रोज ही भेज देता हूं। जीवन एक साधना है। उसे जितना साधो उतना शिवत्व निखरता आता है। प्रकाश को अंधेरे में छिपाकर रखा हुआ है। सत्य छिपा हुआ है इसलिए खोजने का आनंद भी है
एक ऋषि वचन स्मरण आता है : “हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।” (सत्य - वर्ण ढक्कन से गोपति या आच्छादित है।) यह जो स्वर्णपात्र सत्य को ढांके हुए है वह अन्य कोई नहीं स्वयं हमारा ही मन है। मन ही हमें आच्छादित किए हुए है। उसमें हैं -उससे तादात्म्य किए हुए हैं-इससे दुख है, बंधन है, आवागमन है। उसके ऊपर उठ जावें-उससे भिन्न स्व को जान लें-वही आनंद है, मुक्ति है; जन्म मृत्यु के पार जीव न को पाना है। हम जो हैं वही होना है। यही साधना है।
इस साधना पर प्रवृत्ति की सफलता अपने आप ले आती है। प्रवृत्ति के प्रति जागरूक होते ही निवृत्ति आनी प्रारंभ हो जाती है। प्रवृत्ति लानी नहीं है। वह प्रवृत्ति के प्रति स जग होने का सहज परिणाम है। प्रत्येक को केवल प्रवृत्ति की ओर जागना है-जागते चलना है। दैनदिन समस्त क्रिया कलापों में जागरण लाना है। कुछ भी मूछित न हो : यह स्मरण रहे तो किसी दिन चेतना के जगत में एक अभूतपूर्व क्रांति घटित हो जा ती है। प्रभु आपको इस क्रांति की ओर खींच रहा है यह मैं जानता हूं।
रजनीश के प्रणाम
१३-७-१९६२ (दोपहर) प्रति : सुश्री जया वहिन शाह, वंबई
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