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    स्वभाव में जीना साधना है - ओशो

    Living-in-nature-is-Osho


    प्रिय योग चिन्मय, 

        प्रेम ।

                साधना का अर्थ है स्वभाव में डूबना-स्वभाव में जीना-स्वभाव ही हो जाना। इसलिए, विभाव की पहचान चाहिए। जिससे मुक्त होना है, उसे पहचानना अत्यंत आवश्यक है। वस्तुतः तो उसकी पहचान-उसकी प्रत्यभिज्ञा (त्तमववहदपजपवद) ही उससे मुक्ति वन जाती है। वांकेई के एक शिष्य ने उससे कहा : मुझे क्रोध बहुत आता है। क्रोध से मुक्त होना चहता हूं। लेकिन, नहीं हो पाता हूं। मैं क्या करूं? । बांकेई ने उसे घूर कर देखा-उसकी आंख में आंख डालकर देखा। वह कुछ बोला नहीं-बस, उसे देखते रहा : गहरे और गहरे और गहरे। 

            मौन के वे थोड़े से क्षण पूछने वाले को बहुत लंबे और भारी हो गए। उसके माथे पर पसीने की बूंद झलक आई। वह उस स्तब्धता को तोड़ना चाहता था लेकिन साहस ही नहीं जुटा पा रहा था। फिर बांकेई हंसने लगा और बोला, “वड़ी विचित्र वात है। खोजा-लेकिन क्रोध तुममें कहीं दिखाई नहीं पड़ता है। फिर भी-थोड़ा मुझे दिखाओ तो सही-अभी, और यहीं।" वह व्यक्ति कहने लगा : “सदा नहीं रहता है। कभी-कभी होता है, अकस्मात। इसलिए , अभी कैसे दिखाऊं।" वांकेई हंसने लगा और बोला : तब यह तुम्हारा यथार्थ स्वभाव नहीं है। क्योंकि, स्वभा व तो सदा ही साथ है। यदि तुम तुम्हारा स्वभाव होता तो तुम इसे किसी भी समय मुझे दिखा सकते। जब तुम पैदा हुए थे तब यह तुम्हारे साथ नहीं था और जब मरोगे तब यह तुम्हारे साथ नहीं होगा। नहीं-यह क्रोध तुम नहीं हो जरूर ही कहीं कोई भू ल हो गई है। जाओ-फिर से सोचो। फिर से खोजो। फिर से ध्याओ। 



    रजनीश के प्रणाम
    ३-११-१९७० प्रति : स्वामी योग चिन्मय, बंबई

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