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    स्वप्नों से मुक्ति सत्य का द्वार है - ओशो

    Freedom-from-dreams-is-the-door-to-truth


    प्रिय योग चिन्मय, 

        प्रेम। 

            आदमी तथ्यों में नहीं, स्वप्नों में जीता है। और, प्रत्येक मन अपना एक जगत निर्माण कर लेता है, जो कि कहीं भी नहीं है। रात्रि ही नहीं-दिन भर भी चित्त स्वप्नों से ही घिरा रहता है। इन स्वप्नों की मात्रा और तीव्रता के बढ़ जाने का नाम ही विक्षिप्तता है। और इन स्वप्नों की शून्यता का नाम ही स्वास्थ्य है।

            किसी देश के राष्ट्रपति देश के सबसे बड़े पागलखाने का निरीक्षण कर रहे थे। पागलखाने के सुपरिन्टेंडेंट ने एक कमरे की ओर इशारे करके बताया : “इस कमरे में वे पागल हैं, जिन्हें कार का सख्त सवार है।" राष्ट्रपति को उत्सुकता हुई। उन्होंने उस कमरे की खिड़की से झांका और फिर सुपरिन्टेंडेंट से कहा : “इस कमरे में तो कोई भी नहीं है!" सुपरिन्टेंडेंट बोला : सब वहीं होंगे, महानुभाव! पलंगों के नीचे लेटे हुए कार की मरम्म त कर रहे होंगे!" और क्या ऐसे ही सभी लोग अपनी अपनी कल्पनाओं के नीचे नहीं लेटे हुई हैं? काश! वे राष्ट्रपति भी स्वयं का विचार करते तो क्या पाते? क्या हमारी राजधानियां हमारी सबसे बड़े पागलखाने नहीं है? लेकिन, स्वयं का पागलपन स्वयं को दिखाई नहीं पड़ता है। 

            वैसे, यह पागलपन की अनिवार्य शर्त भी है। जिसे स्वयं पर संदेह होने लगता है-जिसे स्वयं का पागलपन दिखाई पड़ने लगता है-स मझना चाहिए कि उसके पागलपन के टूटने का समय निकट आ गया है। विक्षिप्तता के बोध से विक्षिप्तता टूट जाती है। अज्ञान के वोध से अज्ञान टूट जाता है। स्वप्न के बोध से स्वप्न टूट जाता है। और फिर जो शेष रह जाता है, वही सत्य है। 


    रजनीश के प्रणाम
    २०-१०-१९७० प्रति : स्वामी योग चिन्मय, बंबई

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