न दमन, न निषेध, वरन जागरण - ओशो
प्रिय योग लक्ष्मी,
प्रेम।
दमन आकर्षक बन जाता है। और निषेध निमंत्रण। चित्त के प्रति जागने में ही मुक्ति है। निषेध निरोध नहीं है। निषेध तो बलावा है। और जैसे जीभ टूटे दांत के पास वार-वार लौटने लगती है, ऐसे ही मन भी जहां से रक जाए वहीं वहीं चक्कर काटने लगता है। एक वार लंदन के एक साधारण से दुकानदार ने सारे लंदन में सनसनी फैला दी थी। उसने अपनी शो विंडो पर काला कपड़ा लटका दिया था। उस काले पर्दे के वीच में ए क छोटा सा छेद था और उस छेद के पीछे बड़े-बड़े अक्षरों मग लिखा था : “झांकना सख्त मना है।" फिर तो बस यातायात ठप्प हो गया था। लोगों की भीड़ वाहर बढ़ती ही जाती थी। घंटों भीड़ के धक्के खाकर भी लोग उस छेद तक पहुंचने की कोशिश कर रहे थे। हालांकि, छेद में झांकने पर कुछ तौलियों के अतिरिक्त और कुछ भी नजर नहीं आत था। वह तौलियों की एक छोटी सी दुकान थी। और, वह तौलियों के विज्ञापन की एक रामबाण विधि थी। ऐसा ही मनुष्य स्वयं ही, अपने ही मन के साथ करके स्वयं को ही फंसा लेता है। इसलिए, निषेध और दमन से सदा सावधान रहने की जरूरत है।
रजनीश के प्रणाम
१-१०-१९७० प्रति : मां योग लक्ष्मी, बंबई
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