अर्थ (उमंदपदह) की खोज - ओशो
मेरे प्रिय, प्रेम।
अर्थ (उमंदपदह) की खोज ही अनर्थ है। अर्थ की खोज ने ही अर्थहीनता (उमंदपदहसमेदमे) तक पहुंचा दिया है। अर्थ नहीं है, ऐसा जो जान लेता है वह परम अर्थ को उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि फिर अर्थहीनता संभव ही नहीं है। और अनर्थ भी। फिर तो जो है अर्थ ही है। या, नहीं भी है, तब भी भेद नहीं है। असल में फिर तो जो-है, है। जो नहीं है, नहीं है और अन्यथा का प्रश्न ही नहीं उठत | है।और तुमने पूछा है कि प्रयोजन मुक्त होने की बात जरा खोलकर समझाऊं। समझोगे तो वह वात कभी भी खुल न पाएगी। क्योंकि समझने की संभावना प्रयोजन के साथ है! समझने में लगते ही क्यों हो? और देखो-वात खुलकर सामने खड़ी है न? सब खुला है और साफ है। लेकिन, मनुष्य समझने में लगा है। फिर, वह जो सामने है और साफ है, उसे देखे कौन ? समझने की चेष्टा में ही उलझाव है। जानने की चेष्टा में ही अज्ञान है। न समझो...न जानो। फिर वह छिपेगा ही कैसे जो कि-है (ज-सीपवी-टे)? सत्य सदा निर्वस्त्र है, सामने है, साफ है।
रजनीश के प्रणाम
८-४-७० प्रति : श्री पुष्पराज शर्मा, शिमला
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