समर्पण के अतिरिक्त उसका और कोई द्वार नहीं - ओशो
प्यारी सावित्री,
प्रेम।
ध्यान में फलाकांक्षा न रखो। उससे वाधाएं निर्मित होती हैं। ध्यान के किसी अनुभव की पूनरुक्ति भी न चाहो । उससे अकारण ही विध्न होता है। बस, ध्यान में ध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी न हो, इसका ध्यान रखो। फिर शेष सब अपने आप ही हो जाता है। प्रभु के हाथों में छोड़ो स्वयं को। अनंत की यात्रा अपने ही हाथों से होनी असंभव है। समर्पण-समर्पण समर्पण। समर्पण को स्मरण रखो। सोते-जागते, सदा ही। समर्पण के अतिरिक्त उसका और कोई द्वार नहीं है। शून्य के अतिरिक्त उसकी और कोई नाव नहीं है।
रजनीश के प्रणाम
१७-११-१९७० प्रति : डा. सावित्री सी. पटेल, मोहनलाल डी. प्रसूतिगृह, पोस्ट किल्ला पारडी, बुलसार , गुजरात
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