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    प्रेम की आग - ओशो

    Fire-of-love-osho


    प्रिय जयति, प्रेम। 

            प्रभु सब भांति निखारता है। शुद्ध होने के लिए, स्वर्ण को ही नहीं, मनुष्य को भी अग्नि में से गुजरना पड़ता है। प्रेम की पीड़ा ही मनुष्य के लिए अग्नि है। और, सौभाग्य से ही प्रेम की आग मनुष्य के जीवन में उतरती है। जन्म-जन्म की अनंत प्रार्थनाओं का वह फल है। सघन हो गई प्यास ही अंततः प्रेम बनती है। लेकिन, बहुत कम हैं जो कि उसका स्वागत कर पाते हैं। क्योंकि, वहुत कम हैं जो कि प्रेम को पीड़ा के रूप में पहचान पाते हैं। प्रेम सिंहासन नहीं, सूली है। यद्यपि जो उस सूली पर हंसते हुए चढ़ते हैं, वे सिंहासन को उपलब्ध हो जाते हैं। सूली तो दिखाई पड़ती है, सिंहासन दिखाई नहीं पड़ता है। वह सदा सूली की ओट में छिपा होता है। एक क्षण को तो जीसस तक से भूल हो गई थी। उनके प्राणों तक से निकल गया था : हे परमात्मा! यह क्या दिखला रहा है? लेकिन, नहीं फिर उन्हें तत्काल ही स्मरण आ गया और उन्होंने कहा था : जो तेरी मर्जी! बस फिर तो सूली सिंहासन हो गई थी और मृत्यु नव-जन्म। क्रांति के इसी क्षण में-उपरोक्त दो वाक्यों के बीच-जीसस में क्राइस्ट का जन्म हो गया था। पीड़ा घिर गई है, अब जन्म निकट है। प्रसन्न हो, अनुगृहीत हो। मृत्यु को देख भय न कर-धन्यवाद दे। वह नव जन्म की सूचना है। पूराने को मिटना पड़ेगा-नये के होने के लिए। वीज को टूटना पड़ता है अंकुर के लिए। डा. को प्रेम। 


    रजनीश के प्रणाम
    १३-११-१९७० प्रति : श्रीमती जयवंती शुक्ल, जूनागढ़, गुजरात

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