मुक्ति का संगीत - ओशो
प्यारी जयति, प्रेम।
प्रभु के मंदिर में नाचते-गाते, आनंद मनाते ही प्रवेश होता है। उदास चित्त की वहां कोई गति नहीं है। इसलिए, उदासी से बच। चित्त को रंगों से भर। मयूर के पंखों जैसा चित्त चाहिए। और अकारण। जो कारण से आनंदित है, वह आनंदित ही नहीं है। नाच और गा। किसी के लिए नहीं। किसी प्रयोजन से नहीं। नाचने के लिए ही नाच। गाने के लिए ही गा। और तब सारा जीवन ही दिव्य हो जाता है। ऐसा जीवन ही प्रभू की प्रार्थना है। ऐसा होना ही मुक्ति है। डा. को प्रेम। डाक्टर का पत्र मिल गया है।
रजनीश के प्रणाम
२५-१०-१९७० प्रति : श्री जयति शुक्ला, द्वारा डा. हेमंत पी. शुक्ला, अनवर स्ट्रीट, काठियावाड, जूना गढ़ (गुजरात)
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