अंतर्वीणा - ओशो
मेरे प्रिय,
प्रेम।
काश! वीणा बाहर होती तो संगीत भी सूना जा सकता था! लेकिन, वीणा भीतर है, इसलिए संगीत सुना नहीं जा सकता है। हां-संगीत हुआ जरूर जा सकता है। और, वह संगीत भी क्या जो सुनने पर ही समाप्त हो जाए? फिर, वीणा वादक, वीणा, संगीत और श्रोता भिन्न भी तो नहीं हैं। झांको भीतर पहुंचो भीतर। और देखो-यह कौन वहां तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।
रजनीश के प्रणाम
८-४-७० प्रति : श्री जयंतीलाल पी. व्यास, उदयपुर
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