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    प्रार्थनापूर्ण प्रतीक्षा ही प्रेम है - ओशो

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    मेरे प्रिय, प्रेम। 

            तुम्हारा पत्र पाकर कितना आनंदित हूं? कैसे कहूं? जब भी तुम्हें देखता था लगता था : कब तक-कव तक दूर रहोगे? और जानता था कि तुम्हें पास तो आना ही हैबस समय का ही सवाल है। इसलिए, प्रतीक्षा करता रहा और तुम्हारे लिए परमात्मा से प्रार्थना भी। मैं तो प्रार्थनापूर्ण प्रतीक्षा को ही प्रेम कहता हूं। और यह भी मैं जानता था कि तुम प्रसव पीड़ा से गुजर रहे हो और तुम्हारा दूसरा जन्म अत्यंत निकट है। क्योंकि उस जन्म से ही तुम्हारे गीतों को आत्मा मिल सकती थी। शब्द तो शरीर है। 

            शरीर का भी अपना सौंदर्य है, अपनी लय है, अपना संगीत है। लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। और उस अपर्याप्त को ही जो पर्याप्त समझ लेता है, वह सदा को ही अतृप्त रह जात [ है। काव्य की आत्मा तो निशब्द में है। मैं तो प्रार्थनापूर्ण प्रतीक्षा को ही प्रेम कहता हूं। और शून्य, प्रभु के मंदिर का द्वार है। तुम मेरे निकट आए हो और मैं तुम्हें प्रभु के निकट ले चलना चाहता हूं। 

            क्योंकि उसके निकट आए बिना तुम मेरे निकट भी तो कैसे आ सकते हो? वस्तुत: तो उसके निकट आए बिना कोई अपने भी निकट ही आ सकता है। और उसके निकट पहुंचते ही वह जन्म हो जाता है, जिसके लिए तुमने बहुत जन्म लि ए हैं। स्वयं के निकट आ जाना ही दूसरा जन्म है। द्विज होने का सूत्र वही है।और ध्यान रखना कि सड़क पर पड़ा हुआ कंकड़ कोई भी नहीं है-सड़क पर पड़े हुए कंकड़ भी नहीं-वस वे भी दूसरे जन्म की प्रतीक्षा में हैं क्योंकि दूसरा जन्म प्रत्येक को हीरा बना देता है। 

    रजनीश के प्रणाम 

    ७-१२-६९ प्रनश्च : वासना के पीछे दौड़ना एक मृगमरीचिका के पीछे दौड़ते रहना है। वह एक मृत्यु से दू सरी की यात्रा है। जीवन के भ्रम में इस भांति मनुष्य वार वार मरता है। लेकिन जो वासना के प्रति मरने को राजी हो जाते हैं, वे पाते हैं कि उनके लिए स्वयं मृत्यु ही मर गई है। प्रति : श्री रामकृष्ण दीक्षित विश्व, जबलपुर (म. प्र.)

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