जहां प्रेम है, वहीं प्रार्थना है - ओशो
प्यारी डाली, प्रेम।
तेरे पत्र मिले हैं। लेकिन उन्हें केवल पत्र ही तो कहना कठिन है? वस्तुतः तो वे प्रेम से जन्मी कविताएं हैं। प्रेम से और प्रार्थना से भी। क्योंकि जहां प्रेम है, वहां प्रार्थना है।
इसीलिए, जिससे प्रेम है, उसमें परमात्मा की झलक मिलने लगती है। प्रेम वो आंखें दे देता है, जिनसे कि परमात्मा देखा जा सकता है। प्रेम उसके दर्शन का द्वार है। और जब समग्र से प्रेम होता है तो वह समग्र में दिखाई पड़ने लगता है। लेकिन अंश और अंशी में काई विरोध नहीं है। एक से भी प्रेम की गहराई अंततः समग्र पर फैलने लगती है। क्योंकि प्रेम व्यक्तियों को पिघला देता है और फिर अव्यक्ति हो शेष रह जाता है। प्रेम है सूर्य की भांति। व्यक्ति है जमी हुई बर्फ की भांति । प्रेम का सूर्य बर्फ-पिंडों को पिघला देता है और फिर जो शेष रह जाता है वह असीम सागर है। इसलिए प्रेम की खोज वस्तुतः परमात्मा की ही खोज है। क्योंकि, प्रेम पिघलता ही है और मिटाता ही हैं। क्योंकि, प्रेम पिघलाता ही है और मिटाता ही है। क्योंकि वह जन्म भी है और मृत्यू भी है। उसमें स्व मिटता है और सर्व जन्मता है।और निश्चय ही मृत्यू में पीड़ा है और जन्म में भी। इसीलिए प्रेम एक गहरी पीड़ा है। मृत्यू की और प्रसव की भी। लेकिन तुझसे ले रहे काव्य संकेत मुझे आश्वस्त करते हैं कि प्रेम की पीड़ा के आनंद का अनुभव प्रारंभ हो गया है।
रजनीश के प्रणाम
३-११-६९ प्रति : सुश्री डाली दीदी, पूना, महाराष्ट्र
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