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    प्रार्थना और प्रतीक्षापूर्ण समर्पण - ओशो

    Prayer-and-Waiting-Dedication---Osho


    प्यारी कुसुम, प्रेम। 

            मैं बाहर से लौटा हूं तो तेरे पत्र मिले हैं। भूमि में पड़ा वीज जैसे वर्षा की प्रतीक्षा करता है, ऐसे ही प्रभु की प्रतीक्षा करती है। प्रार्थना और प्रतीक्षापूर्ण समर्पण ही उसका द्वार भी है। स्वयं को पूर्णतया छोड़ दे-ऐसे जैसे कि कोई नाव नदी में बहती है। पतवार नहीं चला ना है, बस नाव का छोड़ देना है। तैरना नहीं है-बस बहना है। 

            फिर तो नदी स्वयं ही सागर तक पहुंचा देती है। सागर तो अति निकट है, लेकिन उन्हीं के लिए जो कि तैरते नहीं, वहते हैं। और डूबने का भय मत रखना क्योंकि फिर उसी से तैरने का जन्म हो जाता है। सच तो यह है कि प्रभु में जो डूबता है, वह सदा के लिए उबर जाता है। और कहीं पहुंचने की आकांक्षा भी मत रखना। क्योंकि जो कहीं पहुंचना चाहता है, वह तैरने लगता है। सदा ध्यान रखना कि जहां पहुंच गए वही मंजिल है। इसलिए जो प्रभु को मंजिल बनाते हैं, वे भटक जाते हैं। सर्व मंजिलों से मुक्त होते ही चेतना जहां पहुंच जाती है, वही परमात्मा है। कपिल को प्रेम । असंग को आशीष। 


    रजनीश के प्रणाम
    १९-११-६९ प्रति : सुश्री कुसुम, लुधियाना

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