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    स्वयं की कील - ओशो

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    प्रिय शिरीष, प्रेम। 

            तुम्हारा पत्र। संसार चक्र घूम रहा है, लेकिन उसके साथ तुम क्यों घूम रही हो? शरीर और मन के भीतर जो है, उसे देखो-वह तो न कभी घूमा है, न घूम रहा है, न घूम सकता है । वही तुम हो। तत्वमसि, श्वेतकेतु। सागर की सतह पर लहरें हैं, पर गहराई में? वहां क्या है? सागर को उसकी सतह ही समझ लें तो बहुत भूल हो जाती है। वैलगाड़ी के चाक को देखना। चाक घूमता है, क्योंकि कील नहीं घूमती है, स्वयं की कील का स्मरण रखो। उठते, बैठते, सोते, जागते उसकी स्मृति को जगाए रखो। धीरे धीरे सारे परिवर्तन के पीछे उसके दर्शन होने लगते हैं जो कि परिवर्तन नहीं है। कविता के लिए पूछा है ? किसी से पढ़वाकर थोड़ा सुना था। फिर मन में आया कि ि शरीष से ही सुनूंगा। अव तव सुनाओगे, तभी सुनूंगा। उसमें कविता और तुम दोनों क ो ही साथ पढ़ सडूंगा। 


    रजनीश के प्रणाम
    प्रति : सुश्री शिरीष पै, बंबई

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