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    अंतर्मिलन - ओशो

    Intermittence-Osho


    मेरे प्रिय,प्रेम।

            ऐसा कहां होता है कि दो व्यक्तियों में मिलन हो पाए? इस पृथ्वी पर तो नहीं ही होता है न? संवाद असंभव ही प्रतीत होता है। लेकिन कभी-कभी असंभव भी घटता है। उस दिन ऐसा ही हुआ। आपसे मिलकर लगा कि मिलन भी हो सकता है। और संवाद भी। और शब्दों के बिना भी। और आपके आंसुओं से मिला उत्तर। उन आंसुओं के प्रति मैं अत्यंत अनुगृहीत हूं। ऐसी प्रतिध्वनि तो कभी-कभी ही होती है। मधुशाला देख गया हूं। फिर फिर देख गया हूं। गीत गा सकता तो जो मैं गाता वही उसमें गाया हैं। संसार को भी आनंद से स्वीकार कर सके ऐसे संन्यास को ही मैं संन्यास कहता हूं। क्या सच ही संसार और मोक्ष एक ही नहीं है? अज्ञान में द्वैत है। ज्ञान में तो बस एक ही है। आह! प्रेम और आनंद के जो गीत गा नाच न सके वह भी क्या धर्म है? 

    रजनीश के प्रणाम 

    ८-९-६९ पुनश्च : शिव कहता है कि आप यहां आने को है ? आवे-जल्दी ही। समय का क्या भरोसा है ? देखें सूबह हो गई है और सूरज जन्म गया है ? अब उसके अस्त हो जाने में देर ही कितनी है?

    प्रति : कविवर बच्चन, दिल्ली

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