कूद पड़ो-शून्य में - ओशो
प्रभात
मेरे प्रिय, प्रेम।
तुम्हारा पत्र पाकर आनंदित हूं। सत्य अज्ञात है और इसलिए उसे पाने के लिए ज्ञात को छोड़ना ही पड़ता है। ज्ञात (ज्ञदवूद) के तट से मुक्त होते ही अज्ञात। (न्नदादवूद) के सागर में प्रवेश हो जा ता है। साहस करो और कूद पड़ो। शून्य में-महाशून्य में। क्योंकि वहीं प्रभु का आवास है। सवको प्रेम। या कि एक को ही। आह! वही एक तो है। बस वही है। सब में भी वही है। सर्व में भी। और शून्य में भी।
रजनीश के प्रणाम
प्रति : श्री ओमप्रकाश, अग्रवाल, जालंधर, पंजाब १८-६-१९६८
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