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    स्वयं को बेशर्त दे देना प्रेम है- ओशो

    स्वयं को बेशर्त दे देना प्रेम है- ओशो


    प्रिय बहिन. प्रेम। 

              तुम्हारा पत्र मिला है। आनंद में जानकर आनंदित होता हूं। मेरे जीवन का आनंद यही है। सब आनंद से भरें, श्वास-श्वास में यही प्रार्थना अनुभव करता हूं। इसे ही मैंने धर्म जाना है। वह धर्म मृत है, जो मंदिरों और पूजागृहों में समाप्त हो जाता है। उस धर्म की कोई सार्थकता नहीं है, जिसका आदर निष्प्राण शब्दों और सिद्धांतों के ऊ पर नहीं उठ पाता है।  वास्तविक और जीवित धर्म वही है, जो समस्त से जोड़ता और समस्त तक पहुंचता है विश्व के प्राणों में जो एक कर दे, वही धर्म है। और, वे भावनाएं प्रार्थना हैं, जो उस अदभुत संगम और मिलन की और ले चलती हैं और, वे समस्त प्राथनाएं एक ही शब्द में प्रकट हो जाती हैं। वह शब्द प्रेम है। प्रेम क्या चाहता है? जो आनंद मुझे मिला है, प्रेम उसे सब को बांटना चाहता है। प्रेम स्वयं को बांटना चाहता है। 

             स्वयं को बेशर्त दे देना प्रेम है। बूंद जैसे स्वयं को सागर में विलीन कर देती है, वैसे ही समस्त के सागर में अपनी स त्ता को समर्पित कर देना प्रेम है। और. वही प्रार्थना है। ऐसे ही प्रेम से आंदोलित हो रहा हूं। उसके संस्पर्श ने जीवन अमृत और आलोक बना दिया है। अब एक ही कामना है कि जो मुझे हुआ है, वह सब को हो सके। वहां सबको मेरा प्रेम संदेश कहें। ११ फरवरी तो कल्याण मिल रही हो न? 

    रजनीश के प्रणाम
    ३ फरवरी, १९६५ प्रति : सुश्री सोहन वाफना, पूना

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