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    प्रेम की पूर्णता में अहं-विसर्जित - ओशो

    प्रेम की पूर्णता में अहं-विसर्जित - ओशो Ego-immersed-in-the-fullness-of-love-Osho


    प्रिय सोहन प्रेम। 

            बहुत प्रेम । प्रवास से लौटा, तो पत्रों के ढेर में तेरे पत्र को खोजा। तेरे अपने हाथ से लिखे उस पत्र को पाकर कितना आनंद हुआ-कैसे कहूं? तूने लिखा है : अव तो अनुपस्थिति में उपस्थिति प्रतीत हो रही है। प्रेम ही वस्तुतः उ पस्थिति है। प्रेम हो तो समय और स्थान की दूरियां मिट जाती हैं और प्रेम न हो तो समय और स्थान में निकट होकर भी बीच में अलंध्य और अनंत फालसा होता है। अ प्रेम एकमात्र दूरी है, और प्रेम एकमात्र निकटता है। जो समस्त के प्रेम को उपलब्ध ह ते हैं, वे सब को अपने भीतर ही पाने लगते हैं। विश्व तव वाहर नहीं, भीतर मालूम होता है और चांद-तारे अंतस के आकाश में दिखाई पड़ने लगते हैं। प्रेम की उस पूर्ण ता में अहं लुप्त हो जाता है। प्रभु उस पूर्णता की और ले चले यही सदा मेरी कामना माणिक बाबू को प्रेम। अनिल और बच्चों को स्नेह । 


    रजनीश के प्रणाम
    ३ मार्च १९६५ (रात्रि) प्रति : सुश्री सोहन वाफना, पूना ।

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