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    मनुष्य जितना यांत्रिक होता जायेगा उतना उसकी चेतना सिकुड़ती जायेगी - ओशो

    The-more-mechanical-a-man-becomes-the-more-his-consciousness-will-shrink---Osho
    ओशो 

    मनुष्य जितना यांत्रिक होता जायेगा, उतना उसकी चेतना सिकुड़ती जायेगी - ओशो 

              इस जगत का जैसा विकास हुआ है वह क्रमशः इस भांति हुआ है कि हम मनुष्य की जगह मशीन को ज्यादा आदर देने लगे हैं और क्रमश: मनुष्य भी धीरे-धीरे मशीन होता जा रहा है। जो आदमी जितना ज्यादा मैकेनिकल, जितना ज्यादा यांत्रिक हो जएगा, उतनी ही उसके भीतर की आत्मा सिकुड़ जाती है। उसके प्रगटीकरण के रासते बंध हो जाते हैं। हम अपने को देखेंगे तो हम पाएंगे कि हम करीब-करीब एक म शीन की भांति हैं, रोज वहीं के वहीं काम कर लेती है। और हम इन कामें को दोहराते चले जाते हैं। और एक दिन हम पाते हैं, आदमी मर गया। मृत्यु इसी यांत्रिक ता का अंतिम चरण है। हम धीरे-धीरे जड़ होते जाते हैं।

              एक छोटा बच्चा जितना चैतन्य होता है एक बूढ़ा उतना चैतन्य नहीं होता। इसलिए क्राइस्ट ने कहा है, जो छोटे बच्चे की भांति होगे वे परमात्मा के राज्य को अनुभव कर सकते है। इसका केवल यह अर्थ नहीं है कि जिनकी उम्र कम होगी, इसका यह अर्थ है कि जिनके भीतर स्फुरणा, जिनके भीतर सहज चेतना। जितनी ज्यादा होगी, उतने जल्दी परमात्म के करीब पहुंच सकते हैं, वे उतने जल्दी सत्य को अनुभव कर सकते हैं।

              जैसे विगत दो हजार, ढाई हजार, वर्षो में मनुष्य का विकास होता रहा है, यह संभविना कम होती हुई है। हमारा सहजता, वह जो भी स्पोटेनियस है वह हमारे भीतर कम होता गया है और हमारी जड़ता बढ़ती गयी है। जीवन जैसा है, उसमे शायद जड़ता को बढ़ा लेना उपयोगी होता है। एक आदमी सेना में भर्ती हो जाए, अगर वह चेतन हो तो सेना उसे इनकार कर देगी, वह जितना जड़ हो उतना ही अच्छा सैनिक हो सकेगा। जड़ होने का अर्थ है, उसके भीतर अपनी कोई स्वतंत्र बुद्धि न रह जाए। उसे जो आज्ञा दी जाए, उसे वह पुरा का पुरा पालन कर ले, उसमें जरा भी यहां, वहां, उसके भीतर कोई कंपन चेतन का नहीं होना चाहिए। इसलिए सैनिक धीरे-धीरे जड़ हो जाता है और जितना ही जड़ हो जाता है उतना ही हम कहते हैं, वह योग्य सैनिक है, क्योंकि जब हम उस से कहते हैं, आदमी को गोली मारो तो उसके भीतर कोई विचार नहीं उठता, वह गोली मारता है। और जब हम कहते हैं, बाएं घूम जाओ, तो वह बाएं घूम जाता है उकसे भीतर कोई विचार नहीं उठते। डिसीप्लीन पूरी हो गयी और आदमी मर गया। आशा पूरी होने लगी और आदमी भीतर समाप्त हो गया।

              इसलिए दुनिया में जितने सैनिक बढ़ते जाएंगे उतना धर्म शून्य और क्षीण होता जाएगा, क्योंकि वे सबके सब इतना अनुशासित होंगे कि उनके भीतर चेतना का कोई प्रवाह नहीं हो सकता। इसलिए मैं सेनाओं के विरोध में हूं, इसी लए नहीं कि वे हिंसा करती हैं, बल्कि इस लिए कि इसके पहले कि कोई आदमी हसने में समर्थ हो सके, जड़ हो जाता है। और दुनिया में जितनी सेनाएं बढ़ती जाएँगी , उतने लोग जड़ होते जाएंगे। और अब तो सारी दुनिया करीब-करीब एक सैनिक कैप में परिणत होती जा रही है। अब तो हम अपने बच्चों को भी कालेजों में, सकूलों में सेना की शिक्षा देंगे। और हमें याद नहीं है कि हम जिस आदमी को भी सेना की शिक्षा दे रहे है, हम उसे इस बात की शिक्षा दे रहे हैं कि उसके भीतर चेतना क्षीण हो जाए, वह एक मशीन हो जाए। उससे जो कहा जाए, वही वह करे, उ सके भीतर अपनी कोई स्वतंत्र विचारणा न रह जाए। अगर यह दुनिया में हुआ तो दुनिया में धर्म विलीन हो जाएगा।

    -ओशो 

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