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    जो व्यक्ति जितना जागरूक होकर जीवन जियेगा, वह उतना ही शून्य होता जायेगा - ओशो

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    ओशो

    जो व्यक्ति जितना जागरूक होकर जीवन जियेगा, वह उतना ही शून्य होता जायेगा -  ओशो 

              जो व्यक्ति जितना जागरूक होकर जीवन में जीता है, वह उतना शून्य होता जाता है। समझ लें, मैं यहां सौ फीट लंबी और एक फीट चौडी लकडी की एक पट्टी रख दं और आपसे कहूं कि उस पर चलें, तो आप गिरेंगे, कि पार निकल जाएंगे। सभी पार निकल जाएंगे। छोटे बच्चे, स्त्रियां, बूढ़े, सभी पार निकल जाएंगे। सौ फीट लंबी , एक फीट चौड़ी लकड़ी की पट्टी रखी हुई है। आपसे मैं कहूं, चलें, और आप सभी निकल जाएंगे कोई भी गिरेगा नहीं।

              फिर समझ लें कि इस ऊपर किसी स्थान से दीवाल तक अगर सौ फीट लंबी पट्टी रख दी गयी हो और नीचे गहराई हो. और फिर आपसे कहा जाए, इस पर चलें, आप में से कितने लोग चल पाएंगे? फर्क तो कुछ भी नहीं हुआ है वह पट्टी सौ फीट लंबी, एक फीट चौड़ी अब भी है, जितनी उस  समय पर थी, उतनी अब दो मकानों के ऊपर राखी हुई है। फिर आपको जाने में डर क्या है? घबराहट क्या है? कितने लोग उसके पार हो पाएंगे? कितने लोग पार जाने की हिम्मत करेंगे? कठिनाई क्या आ गयी? उसकी लंबाई चौड़ाई वही की वही है, आप वही के वही आदमी हैं। इस नीचे गड्ढे से फर्क क्या पड़ रहा है ?

              फर्क यह पड़ रहा है कि जब नीचे पट्टी रखी थी, आपको मूर्छित चलना संभव था , कठिनाई नहीं थी। आप अपने दिमाग में कुछ भी सोचते हुए चल सकते थे। अब ऊपर आपको परिपूर्ण जागरूक होकर चलना होगा। अगर जरा भीतर दिमाग में कुछ गड़बड़ हुई, बातें चली, आप नीचे जाएंगे। घबराहट है आपकी मूर्छा। जो जागरूक है वह ऊपर भी चल जाएगा, कोई फर्क नहीं पड़ता। जमीन जैसे नीचे थी वैसे ऊपर भी है। कौन सा फर्क पड़ रहा है। जागरूक अपने शरीर अपने मन, अपने विचार सबके प्रति जागा हुआ होता है, मूर्छित सोया हुआ होता है। तो नीचे तो चल जाते हैं आप, क्योंकि वहां कोई मूर्छा के तोडने की जरूरत नहीं है, ऊपर चलने में घबड़ाते है।

              मुझसे लोग कहते हैं कि जागरूक कैसे हो? तो मेरे गांव के पास एक छोटी सी पहा,डी है, वहां एक बड़े नीचे खंदक है और एक छोटी सी पड़ी है.जिस पर चलने में प्राण कंपते हैं। मैं उन्हें वहां ले जाता हूं और उनसे कहता हूं, इस पर चले। आप को पता चल जाएगा कि जागरूकता क्या है? उस पर दो कदम चलते हैं और कहते हैं कि निश्चित ही, इसके भीतर जाते ही एकदम चित्त शून्य हो जाता है, हम एकदम जाग जाते हैं। जैसे किसी पहाड़ की कगार पर चलते वक्त आप बिलकुल होश से चलते हैं, ठीक वैसे ही चौबीस घंटे जो आदमी होश को संभालता है, वह क्रमशः शुन्य हो जाता है।

    -ओशो 


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