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    आदतें मनुष्य की चेतना को दबा देती है - ओशो

    Habits-suppress-human-consciousness---Osho
    ओशो 

    आदतें मनुष्य की चेतना को दबा देती है - ओशो 

    आदतें मनुष्य की चेतना को दबा देती है। जिस मनुष्य को आत्मा को उपलब्ध करना हो उसकी उतनी ही कम आदतें होनी चाहिए , उसके उतने ही कम बंधन होने चाहिए, उससे उतनी ही कम जड़ता होनी चाहिए। रात जो मैंने कहा, संवेदना का क्या अर्थ है, सेंसेटिव होने का क्या अर्थ है, उसका प्रयोजन यह था, जितनी कम जड़ता हो उतनी ज्यादा मनुष्य के भीतर संवेदन की शक्ति जाग्रत होगी। और जितनी ज्यादा जड़ता हो उतनी संवेदन की शक्ति शून्य हो जाती है। और संवेदन की शक्ति जितनी गहरी हो, हम सत्य को उतनी ही गहराई तक अनुभव कर पाएंगे, और संवेदन की शक्ति जितनी क्षीण हो जाएगी, उतना ही हम सत्य से दूर हो जाएंगे।

    तो मैं आपको कहूंगा, जो धार्मिक हैं, वह स्मरण रखें कि धर्म उनकी आदत न बन जाए। कहीं धर्म भी उनकी एक जड़ आदत न बन जाए कि वह सूबह रोज मंदिर जाएँ, नियत समय पर मंदिर जाए, एक नियत मंत्र पढ़ें, एक नियत देवता के सामने । हाथ झुकाए, यह कहीं उनकी जड़ आदत न हो। और यह सच है कि सौ मैं निन्यान बे मौके पर यह एक जड़ आदत है। और यह आदतें बेहतर नहीं है और यह आदत ठीक नहीं है। फिर यह भी स्मरण रखें, आपने दुसरों की आज्ञाएं स्वीकार कर ली हैं और आप उनके अनुकूल वर्तन कर रहे हैं, उनके अनुकूल आचरण कर रहे हैं। यह भी जड़ता का अंगीकार कर लेना है। जब भी मैं कोई आज्ञा दूं और आप स्वीकार कर लें तो आपकी चेतना भीतर क्षीण हो जाती है। जब भी दूसरा कुछ कहे और आप स्वीकार कर लेते हैं, आपके भीतर की चेतना जड़ होने लगती है। समाज कहता है, संस्कार कहते हैं, पुरोहित कहते है, हजारों वर्षों की उनकी परंपरा है, उसके वजन पर कहते हैं। उद्वरण करते हैं शास्त्रों का कि यह ठीक है और हम उसे मान लेते हैं। और उसे स्वीकार कर लेते हैं। धीरे-धीरे हम स्वीकार मात्र पर टिके रहे जाएंगे, और हमारे जो स्फुरण होना चाहिए था, जीवन का, वह बंद हो जाएगा।

    -ओशो 

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