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    हमारी संवेदना जितनी गहरी होगी, उतने गहरे सत्य हमें प्रकट होने लगेंगे - ओशो

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    ओशो 

    हमारी संवेदना जितनी गहरी होगी, उतने गहरे सत्य हमें प्रकट होने लगेंगे - ओशो 

              अगर एक अंधा आदमी मुझसे आकर कहे कि मुझे प्रकाश को जानना है तो क्या में उसे सलाह दूंगा कि तुम जाओ और प्रकाश के संबंध में लोगों से समझो। वह तुम्हें जो बताए, उसे याद कर लो तो प्रकाश का पता हो जाएगा? मैं उससे कहूंगा, प्रकाश के संबंध में जानने की फिकर मत करो, आंख ठीक हो जाए, आंख का उपचार हो जाये, इसकी चिंता करो। अगर आंख का उपचार हो जाए तो प्रकाश का अनुभव होगा। लेकिन अगर आंख का उपचार न हो तो प्रकाश के संबंध में कुछ भी जान लेने से कोई अनुभव नहीं होता है। आंख संवेदना है. प्रकाश सत्य है। सत्य को खोजी ।

             ईश्वर के खोजी की भी मैं कहता हूं कि ईश्वर की फिकर छोड़ दो, संवेदना की फिकर करो। हमारी जितनी गहरी संवेदना होगी उतनी ही दूर त क सत्य के हमें दर्शन होते हैं। में आपको देख रहा हूँ। मेरी देखने की शक्ति आपके शरीर के पार नहीं जाती, इसलिए में आपके शरीर को देखकर वापस लौट आता है। अपने को देखता हूं, तो अपने को भी देखने में, शक्ति मेरी, मन के पार नहीं जाती, तो मन को देखकर वापस लौट जाऊंगा। मेरे देखने की शक्ति जितनी गहरी होगी उतना गहरा सत्य का मुझे अनूभव होगा।

              जो लोग परमात्मा को अनुभव करते हैं, उनके देखने की शक्ति इतनी तीव्र है कि प्रकृति को पार कर जाते हैं और परमात्मा को देख लेते हैं। प्रकृति से अलग कहीं परमात्मा नहीं बैठा हुआ है। जो चारों तरफ दिखाई पड़ रहा है, इसमें ही वह छिपा है। अगर हमारी आंख गहरी हो तो हम आवरण को पार कर जाएंगे और केंद्र को अनुभव कर लेंगे। इसलिए सवाल ईश्वर की खोज का नहीं, सवाल अपनी संवेदना को गहरा करने का है। हम जितना गहरा-गहरा अनुभव कर सकें, उतने गहरे सत्य हमें प्रकट होने लगेंगे।

              लेकिन हमें सिखाई कछ और बातें गयी है। हमें सिखाया जाता है, ईश्वर को खोजो। तब पागल कुछ हिमालय पर ईश्वर को खोजने जाते हैं, जैसे कहां ईश्वर नहीं है। तब कोई एकांत वन में ईश्वर को खोजने जाता है, जैसे भीड़ में ईश्वर नहीं है। तब कोई भटकता है, दूर-दूर, तीर्थों कि यात्राएं करता है कि वहां ईश्वर मिलेगा। जैसे इन जगहों में जहां तीर्थ नहीं है. कां ईश्वर नहीं है। ईश्वर उसे मिलता है, जिसकी संवेदना गहरी हो। न हिमालय पर जाने से मिलता है. न तीर्थों में जाने से मिलता है. न वनों में जाने से मिलता है। संवेदना गहरी हो तो ईश्वर यहीं, इसी क्षण उपलब्ध है। जिसे देखने की शक्ति हो उसे यहां प्रकाश है और जिसकी आंख न हो ठीक उसे यहां प्रकाश नहीं है। इसलिए महत्वपूर्ण ईश्वर की खोज नहीं, संवेदना की खोज है। और हम बहुत कम संवेदनशील हैं हम बहुत ही कम संवेदनशील है।

    -ओशो 

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