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    हमारी जितनी चेष्टाएं दूसरों को देखकर होगी, वे हमें गलत दिशा की और ले जाएंगी - ओशो


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    ओशो 

    हमारी जितनी चेष्टाएं दूसरों को देखकर होगी, वे हमें गलत दिशा की और ले जाएंगी - ओशो 

              मैं एक गांव गया। मेरे एक मित्र वहां साधू हो गए थे। उन्हें मिलने गया। एक पहाड़ के किनारे एक छोटे झोपडे में वे रहते थे। मैं उनसे मिलने गया। उनको कोई खब र नहीं किया और गया। मैंने खिड़की से देखा, वे अपने कमरे में नंगे होकर टहल र हे हैं। कपड़े उतार दिए हैं, मैंने जाकर दरवाजा खटखटाया। उन्होंने जल्दी से दरवाज [ खोला और चादर लपेटकर दरवाजा खोल दिया। मैंने उनसे पूछा, अभी आप नग्न थे, फिर यह चादर क्यों पहन ली? वे मुझसे बोले, मैं धीरे-धीरे, नग्न साधू होने का अभ्यास कर रहा हूं। अभी मुझे भय मालूम होता है, इसलिए अकेले में नग्न होने का अभ्यास करता हूं। फिर धीरे-धीरे मित्रों के सामने करूंगा, फिर गांव में, फिर धीरे-धीरे में अभ्यस्त हो जाऊंगा। मैंने उनसे कहा, किसी सर्कस में भर्ती हो जाए, क्यों कि नग्न होने का अभ्यास करके जो आदमी नंगा हो जाएगा, वह सर्कस के लायक है , संन्यास के लायक नहीं है। वह महावीर को अपना आदर्श बनाए हुए थे और उनका खयाल था कि महावीर नग्न होगे, इसलिए मैं भी नग्न हो जाऊं।

              मैंने उनको कहा; पता है, महावीर नग्न अभ्यास करके नहीं हुए थे। महावीर की नग्नता सहज थी। एक वक्त, एक प्रतीति, एक संभावना उनके भीतर उदित हई। उन्हीं वस्त्र अनावश्यक हो गए। उन्हें याद भी न रहा कि वस्त्र पहने। वे उस सरलता को, उस निषिता को उपलब्ध हुए, जहां ढांकने का उन्हें कोई खयाल ही न रहा। वस्त्र छूट गए। यह तो मेरी समझ में नहीं आता है कि एक आदमी नग्न होने का अभ्यास करके नग्न हो जाए, उसकी नग्नता बहुत दूसरी होगी। यह अभिनय और पाखंड होगा। किसी आदमी के भीतर प्रेम का स्फुरण हो और वह सारी दुनिया के प्रति प्रेम से भर जाए और अहिंसा से भर जाए तो समझ में आता है। लेकिन एक आदमी चेष्टा करे, प्रयास करे, अभ्यास करें अहिंसक होने का, यह समझ में नहीं आता।

              हमारी जितनी चेष्टाएं दूसरों को देखकर होगी, वे हमें गलत ले जाएंगी और हमारे जीवन को व्यर्थ कर देंगी। इसी वजह से सामान्य जन भी उतना असंतुष्ट और अशांत नहीं होता, जितना तथाकथित साधू और संन्यासी होते हैं। वे सारे पागलपन में लगे हए हैं। एक न्यूरो सस उनको पकड़े हुए है, किसी दूसरे आदमी जैसा होना है। यह पागलपन है, यह विछिप्तअता है। किसी दूसरे जैसे होने की कोशिश बिलकुल पागलपन है। क्योंकि यह सपरी चेष्टा का परिणाम होगा आत्म दमन, इसका अर्थ होगा रिप्रेशन, जो तुम हो उसे दबाओ और जो तुम नहीं हो, उसको होने की कोशिश करो। ऐसा व्यक्ति अपने हाथ से नर्क में पहुंच जाता है। चौबीस घंटे नर्क में जीने लगता है, जो वह है उसकी निंदा करता है, और जो उसे होना है, उसकी चेष्टा करता है।

    -ओशो 

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