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    जिसे हम जीवन समझ रहे हैं, वह जीवन नहीं है - ओशो

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    जिसे हम जीवन समझ रहे हैं, वह जीवन नहीं है - ओशो 


    एक सूफी फकीर था इब्राहिम। एक गांव के बाहर रहता था। गांव के भीतर जाने वाले लोग उससे पूछते कि बस्ती का रास्ता कहां है? तो वह कहता था कि भूल कर भी बाएं मत जाना। बाएं की तरफ मरघट है और दाएं जाना। दाएं की तरफ बस्ती है। जो यात्री उसकी बात मान कर दाएं चले जाते-मील दो-मील चल कर मरघट पहुंच जाते तो बहुत क्रोध में लौटते और कहते इब्राहिम से कि तुम पागल हो गए हो। तुमने हमें कहा दाएं जाना, वहां बस्ती है, बाएं मत जाना, वहां, मरघट है। बाएं गए, वहां तो मरघट मिला, व्यर्थ हमें परेशान किया। इब्राहिम कहता कि मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि जिसे तुम बस्ती करते हो वह मरघट है, क्योंकि वहां हर आदमी सिवाय मरने के और कुछ भी करने को नहीं, और जिसे तुम मरघट करते हो उसे मैंने बस्ती जाना, क्योंकि वहां जो एक बार बस गया उसे कभी उजड़ते नहीं देखा, जो वहां बस जाता है कभी छोड़कर नहीं जाता है।

    तो जिसे हम जीवन समझ रहे हैं, वह जीवन नहीं है। अगर यह स्मरण न आए तो जीवन की कला का क, ख, ग, भी नहीं सीखा जा सकता है। अगर यह ही जीवन है तो बात समाप्त हो गई। फिर सीखने को कुछ नहीं बचता। लेकिन यह जीवन नहीं है और पहचान इस बात से हो सकती है कि इस प्रतिपल जी नहीं रहे हैं, केवल मृत्यु से बचने की सुरक्षा और आयोजन कर रहे हैं। भोजन जुटा रहे हैं, मकान बना रहे हैं, यश पद प्रतिष्ठा, धन, संपत्ति इकट्ठी कर रहे हैं। कोई पूछे कि ये सब अंततः इसका मूल्य क्या है? अंततः इसका मूल्य है कि मैं मर न जाऊंगा। मैं असुरक्षित न छूट जाऊं। कल भी जी सकू, परसों भी जी सकू इसलिए इंतजाम कर रहा हूं। लेकिन इस सारी व्यवस्था के बाद आदमी आखिर मृत्यु में पहुंच जाता है।

    - ओशो 

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