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    सत्य को कहा नहीं जा सकता - ओशो

    Truth-cannot-be-said---Osho


    सत्य को कहा नहीं जा सकता - ओशो 

    रामकृष्ण के पास एक दफा एक व्यक्ति आया। रामकृष्ण से उसने कहा कि मुझे सत्य के संबंध में कुछ बतायें। रामकृष्ण से उसने कहा कि मुझे परमात्मा के संबंध में कुछ कहें। रामकृष्ण ने कहा-मुझे तुम्हारे पास आंखें तो दिखायी नहीं देतीं, तुम सम झोगे कैसे? वह बोला-आंखें मेरे पास हैं। रामकृष्ण ने कहा-अगर उन्हीं आंखों से परमात्म और सत्य जाना होता तो परमात्मा और सत्य को जानने की जरूरत ही न रह जाती, सभी लोग उसे जानते। और भी आंख है। और भी आंखें हैं। वह बोला-फि र भी कुछ तो समझायें।

    रामकृष्ण ने एक कहानी कही। वह कहानी बड़ी मीठी है, बड़ी अद्भुत है। बड़ी प्राचीन कथा है, हजारों-हजारों ऋषियों ने उस कहानी को कहा है और आने वाले जमाने में भी हजारों-हजारों ऋषि उस कहानी को कहेंगे। उसमें बड़ी पवित्रता समाविष्ट हो गयी है। बड़ी छोटी-सी कहानी, बड़ी सरल-सी ग्रामीण कहानी है। राम कृष्ण ने कहा-एक गांव में अंधा था और उस अंधे को दूध से बहुत प्रेम था। उसके मित्र जब भी आते, उसके लिए दूध ले आते। उसने दफा अपने मित्रों से पूछा-इस दू ध को मैं इतना प्रेम करता हूं, इतना प्रेम करता हूं कि मैं जानना चाहता हूं कि दू ध कैसा है? क्या है? मित्रों नग कहा-मुश्किल है, कैसे बतायें? फिर भी उस अंधे ने कहा-कुछ तो समझायें, किसी तरह समझायें? उसके एक मित्र ने कहा-दूध बगुले के पंख जैसा सफेद होता है। अंधा बोला-मुझसे मजाक न करे। बगुले को मैं जानता नहीं, उसके पंख की सफेदी को नहीं जानता। मैं कैसे समझूगा कि दूध है! उस मित्र ने कहा-बगुला जो होता है, उसकी गर्दन घास काटने के हंसिए की तरह टेढ़ी होती है। अंधा बोला-आप पहेलियां बुझा रहे हैं।  मैंने कभी देखा नहीं हंसिया। मुझे पता नहीं, वह कैसा टेढ़ा होता है ? तीसरे मित्र ने क हा-इतनी दूर क्यों जाते हो? उसने अपना हाथ मोड़ कर उस अंधे से कहा-इस हाथ पर हाथ फेरो, इससे पता चल जायेगा कि हंसिया कैसा होता है? उसने उसके तिरछे हाथ पर हाथ फेरा-घूमा हुआ, मुड़ा हुआ हाथ, औंधा हाथ। वह अंधा नाचने लगा। वह बोला-मैं समझ गया, दूध मुड़े हुए हाथ की तरह होता है।

    और रामकृष्ण ने कहा-सत्य के संबंध में जो नहीं जानते हैं, उनको बतायी हुई सारी बातें ऐसी ही हो जाती हैं। इसलिए आपसे सत्य के संबंध में न कुछ कहा गया है और न कभी कुछ कहा जा सकेगा। आपसे यह नहीं कहा जा सकता है कि सत्य क्य | है? आपसे इतना कहा जा सकता है कि सत्य को कैसे जाना जा सकता है। सत्य को नहीं बताया जा सकता, लेकिन सत्य की विधी का विचार किया जा सकता है । उस विधी में श्रद्धा का कोई हिस्सा नहीं है, खोज और अन्वेषण, जिज्ञासा और अ भीप्सा-उसमें किसी चीज को मान लेने की कोई जरूरत नहीं है। जब से दुनिया के धार्मिक ने यह शुरुआत की कि भगवान को मान लो, स्वीकार क र लो, अंगीकार कर लो, तब से जो भी विवेकशील हैं, वे सब भगवान के विरोध में खड़े हो गये हैं, क्योंकि स्वीकार करना, अज्ञान में किसी चीज को मान लेना, जि सका थोड़ा भी विचार जाग्रत हो और विवेक प्रबुद्ध हो, उसके लिए कभी भी संभव नहीं होगा। अपने हाथों से धार्मिकों ने धर्म को विवेक-विरोधी बना कर खड़ा कर ि दया है।

    तो मैं आज की सुबह आपसे यह कहना चाहूंगा कि धर्म का विवेक से कोई विरोध नहीं है। धर्म भी परिपूर्ण रूप से विवेक को प्रतिष्ठा देता है और विवेक धर्म का खंडन नहीं है। विवेक के माध्यम से ही धर्म की परिपूर्ण उपलब्धि होती है। ले कन अपने भीतर विवेक को जगाना होता है, श्रद्धा को नहीं। विवेक और श्रद्धा मनुष्य के भीतर दो दिशाएं हैं। श्रद्धा का अर्थ है कि मैं मान लूं, जो कहा जाए। दुनिया के जितने प्रचारवाद हैं, सब यही चाहते हैं कि वे जो कहें, आप मान लें। दुनिया के जितने प्रोपेगैण्डिस्ट हैं, चाहे वे राजनीतिक हों, चाहे धार्मि क हों, वे चाहते हैं, जो भी वे कहें, आप मान लें। उनकी कही हुई बात में आप क ो कोई इंकार न हो। उन सबकी चेष्टाएं यह हैं कि आपका विवेक बिलकुल सो जाए और आपके भीतर एक अंधी स्वीकृति पैदा हो जाए।

    इसका परिणाम यह हुआ है कि जो बहुत कमजोर हैं और जिनके भीतर विवेक की कोई संभावना नहीं है या जिनका विवेक बहुत क्षत था, क्षीण हो गया था या जो स हस नहीं कर सकते थे किसी कारण से अपने विवेक को जगाने का, वे सारे लोग धर्म के पक्ष में खड़े रह गये। और जिनके भीतर थोड़ा भी साहस था, वे सब धर्म के विरोध में चले गये। उन विरोधी लोगों ने विज्ञान को खड़ा किया और इन कमजोर लोगों ने धर्म को संभाले रखा। आज दोनों सामने खड़े हैं और धर्म रोज क्षीण होता जाता है, विज्ञान राज विकसित होता जाता है। इसे कोई देखता नहीं कि यह क्या हो रहा है। हम समझ रहे हैं | क विज्ञान नुकसान नहीं पहुंचा रहा है। धर्म के दरवाजे विवेकशील के लिए जब तक बंद रहेंगे, तब तक विवेकशील विज्ञान के पक्ष में खड़ा रहेगा। धर्म के द्वार विवेक शील के लिए खुल जाने चाहिए और विवेकहीन के लिए बंद हो जाने चाहिए।

     - ओशो 

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