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    मृत्यु की दिशा - ओशो



    मृत्यु की दिशा - ओशो 

    एक छोटी-सी कहानी मुझे स्मरण आती है। बल्ख में बल्ख के बादशाह ने एक रात एक सपना देखा रात उसने सपने में देखा कि कोई अंधेरी छाया, कोई काली छाया उसके कंधे पर हाथ रखे है। नींद में भी वह घबड़ा गया। उसने पूछा कि तुम कौन हो? उस काली छाया ने कहा कि मैं तुम्हारी मौत और आज सांझ तुम्हें लेने आती हूं। तुम ठीक जगह ठीक समय पर मुझे मिल जाना। सूरज डूबते ही डूबते मैं आने को हूं, ठीक जगह पर मुझे मिल जाना। यही खबर देने आई हूं। कि कहीं ऐसा न हो कि जहां मैं तुम्हें लेने आऊं, तुम वहां न मिलो।  उस सम्राट का मन था कि पूछ ले कि वह कौन-सी जगह है कि जहां मैं मिलूं, इसलिए कि वहां से बच जाऊं, बल्कि इसलिए कि वहां से बच जाऊं।

    लेकिन नींद टूट गई। घबराहट में और वह पूछ नहीं पाया मौत से कि मैं किस जग मिलूं। इसलिए नहीं कि मैं जाऊं, बल्कि इसलिए ताकि वहां से बच सकूँ, उस जगह का पता चल जाए। लेकिन नींद टूट गई थी और मौत नहीं थी सामने। वह बहुत घबराया। आधी रात थी। उसने नगर में जो भी ज्ञानी थे, ज्योतिषी थे, पंडित थे, शास्त्रों को जानने वाले जीवन और मृत्यु के संबंध में बातें करते थे, उन सारे लोगों को आधी रात ही बुला लिया और उनसे कहा कि यह स्वप्न आया है, उसका क्या अर्थ है? क्या मैं आज सांझ मरने को हूं। अगर मरने को हूं, तो बचने का क्या इंतजाम है। कैसे बच सकता हूं। मौत से बचना जरूरी है। और ज्यादा देर नहीं है, थोड़ी ही देर में सुबह हो जाएगी और सूरज यात्रा शुरू कर देगा और फिर थोड़ी ही देर बाद सांझ हो जाएगी।

    वे पंडित अपने शास्त्र ले आये। उन्होंने अपने शास्त्र खोले और वे विवेचन और व्याख्या में लग गए। लेकिन एक पंडित का विवेचन और व्याख्या दूसरे से मेल नहीं खाता, कभी-भी नहीं खाया पंडितों के विवेचन और व्याख्या है मैल, उसमें कोई संबंध कभी भी नहीं रहा। उन्होंने विवाद किया है। लेकिन आज तक वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे। सुबह होने लगी और विवाद इतना बढ़ गया कि वह सम्राट बोला—जब मैं जागा था, नींद से, तब मुझे सपना कुछ स्पष्ट भी था। तुम्हारी बातें सुनकर और भी अस्पष्ट हो गया है। मैं और भी भ्रम में पड़ गया हूं। जल्दी करो। उन पंडितों ने कहा जल्दी तो हम कर रहे हैं, लेकिन विवाद बढ़ता चलता गया।

    सूरज उठने लगा तो सम्राट के प्राण कंपने लगे। सांझ-सांझ करीब आने लगी। उसके एक बूढ़े नौकर ने कहा कि इनकी बातों का निष्कर्ष शायद ही कभी निकले। सांझ जल्दी हो जाएगी और अच्छा यह हो कि उनको विवाद करने दें। आपने पास जो तेज घोड़ा है, उसको लेकर जितनी दूर इस महल से निकल सकें, निकल जाएं। चूंकि जिस रात महल में यह सपना आया है, संभव है कि मौत इसी महल में आती हो, तो हट जाएं इस महल से दूर। यह बात ठीक भी मालूम पड़ी। उस सम्राट ने अपने घोड़े पर सवारी की और वह भागा। जाते साथ समय उसे ख्याल भी न रहा उस पत्नी का, जिससे उसने अनेक बार कहा था कि तेरे बिना एक क्षण मैं जी भी नहीं सकता। उन मित्रों का कोई स्मरण न रहा, जिन्हें उनसे कहा था कि तुम ही मेरे जीवन हो, तुम ही मेरी खुशी हो, तुम ही मेरी-गीत हो, मौत सामने आती है, तो सारी बातें भूल जाती हैं।

    वह भागा और दिन भर भागता रहा। उस दिन न तो उसे प्यास लगी और न भूख। मौत सामने थी – कैसे भूख थी, कैसी प्यास
    और एक क्षण भी रुकना खतरनाक था। कौन जाने कितने निकट हो मौत महल के। इसलिए जितनी दूर निकल जाऊं उतना अच्छा। वह सांझ तक भागता रहा। बहुत तेज घोड़ा था उसके पास सैकड़ों मील दूर वह सांझ तक निकल गया, तो निश्चित हुआ। सूरज ढलता था। उसने एक बगीचे में अपना घोड़ा बांधा।

    वह घोड़ा बांध भी नहीं पाया था कि पीछे कंधे पर किसी का हाथ उसे मालूम पड़ा। लौटकर देखा तो घबड़ाया—वही काली छाया थी? उसने पूछा तुम, तुम कौन हो? मृत्यु ने कहा रात आई थी—फिर भी पहचाने नहीं! धन्यवाद तुम्हारे घोड़े को अगर इतना तेज घोड़ा तुम्हारे पास न होता तो आज बड़ी मुश्किल थी। इस जगह पहुंच जाना बहुत जरूरी था। मैं यहां प्रतीक्षा करती थी। और बहुत भयभीत थी कि पता नहीं तुम ठीक समय पर पहुंच पाओ कि न पहुंच पाओ, लेकिन धन्यवाद तुम्हारे घोड़े को, बहुत तेज घोड़ा है और ठीक समय पर ठीक जगह ले आया।

    आदमी जीवन भर भागता है, उपाय करता है, व्यवस्था करता है, सुरक्षा करता है और आखिर में सारी व्यवस्था, सारी सुरक्षा मौत में जाकर खड़ा कर देती है। सोचता था जो मैं उपाय कर रहा हूं, उससे मौत से बचूंगा, मिटने से बचूंगा, न होने से बच जाऊंगा। लेकिन वे सारे उपाय, उसके सारे आयोजन उसे न होने में ही ले जाते हैं। हमने मौत की तरफ कदम उठाए, इसलिए चाहे हम तेज घोड़े पर चलते हों, चाहे सुस्त घोड़े पर चलते हों, चाहे गरीब का घोड़ा हो, चाहे अमीर का घोड़ा हो, सभी घोड़े ठीक जगह पर ठीक समय पर, पहुंचा देते हैं। हम शायद जो दिशा लें, वह दिशा ही मृत्यु की है।

    - ओशो 

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