सत्य के मार्ग पर स्वयं के सिवाय कोई और साथी नहीं है - ओशो
सत्य के मार्ग पर स्वयं के सिवाय कोई और साथी नहीं है - ओशो
आप भगवान से डरते हैं आप नास्तिक होंगे, आस्तिक नहीं हो सकते। कुछ लोग कहते हैं, जो भगवान से डरे वह आस्तिक हैं-गॉड-फियरिंग, जो ईश्वर से डरता हो, वह आस्तिक है। यह बिलकुल झूठी बात है। ईश्वर से डरने वाला कभी आस्तिक नहीं हो सकता, क्योंकि डरने से कभी प्रेम पैदा पहीं होता। और जिससे ह म भय खाते हैं, उसको बहुत प्राणों के प्राण में घृणा करते हैं। यह तो संभव ही नह ीं है। भय के साथ भीतर घृणा छिपी होती है। जो लोग भगवान से भयभीत हैं, वे भगवान के शत्रु हैं और उनके मन में भगवान के प्रति घृणा होगी तो मैं आपसे कहूं, ईश्वर से भय मत खाना। ईश्वर से भय खाने का कोई भी कार ण नहीं है। इस सारे जगत में अकेला ईश्वर ही है, जिससे भय खाने का कोई कार ण नहीं। और सारी चीजें भय खाने की हो सकती हैं।
लेकिन हुआ उलटा है। और मैं बड़े-बड़े धार्मिकों को यह कहते सुनता हूं कि ईश्वर का भय खाओ। और ईश्वर का भय खाने से पुण्य पैदा होगा। और ईश्वर का भय खाने से सच्चरित्रता पैदा होग । ये निहायत झूठी बातें हैं। भय से कहीं सदाचार पैदा हुआ है? जैसे हमने रास्ते पर पुलिस वाले खड़े कर रखे हैं, वैसे ही हमने परलोक में भगवान को खड़ा कर रख है। वह एक बड़े पुलिया वाले कि हैसियत से है, एक बड़े कांस्टेबल की हैसियत से है। भगवान को जिन्होंने कांस्टेबल बना दिया है, उन लोगों ने धर्म को बहुत नुकसान पहुंचाया है।
भगवान के प्रति भय से कोई विकसित नहीं होता। भगवान के प्रति तो अभय चाहिए और अभय का अर्थ क्या होगा? अभय का अर्थ होगा, जो लोग श्रद्धा करते हैं, वे लोग भय के कारण श्रद्धा करते हैं । इसलिए श्रद्धा को मैं धर्म की आधारभूत शर्त नहीं मानता। आपने सुना होगा कि जिसका धार्मिक होना है, उसे श्रद्धालु होना चाहिए। गांधीजी से एक बहुत बड़े व्यकि त ने जाकर पछा कि मैं परमात्मा को जानना चाहता है तो क्या करूं? तो गांधीजी ने कहा, विश्वास करो। अगर वह मुझसे पूछता तो मैं उससे यह नहीं कहता कि ि वश्वास करो। गांधीजी कि बात ठीक नहीं है और उस आदमी ने गांधी से कहा, वि श्वास करूं? जिस बात को जानता नहीं, विश्वास कैसे करूं? जिस बात से मैं परिरी चत नहीं, उसे मानूं कैसे? गांधी ने कहा, बिना माने तो परमात्मा को जाना नहीं ज | सकता। और मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि जो मान लेते हैं, वे कभी नहीं जान सकेंगे।
मैं आपसे यह कहता हूं कि जो परमात्मा को मान लेते हैं, वे कभी नहीं जान सकेंगे। यह आपका दुर्भाग्य होगा कि आप परमात्मा को मानते हों, क्योंकि मानन को अर्थ यह हुआ कि आपने जिज्ञासा और खोज के द्वार बंद कर दिये। मानने का अर्थ यह हुआ कि अब आपकी कोई तलाश नहीं है, अब आपकी कोई खोज नहीं हैं, अब आपकी कोई इन्क्वायरी नहीं है। अब आप कछ खोज नहीं रहे हैं. आप तो मा न कर बैठ गये, आप तो कर गये। श्रद्धा मृत्यु है। और संदेह जीवन है। संदेह खोज है। तो मैं आप से श्रद्धालु होने को नहीं, मैं आप से संदेहवान होने को कहता हूं। लेकिन संदेह करने का यह मतलब मत समझ लेना कि मैं आपको ईश्वर को न मानने को कह रहा हूं, क्योंकि न मान ना भी मानने का एक रूप है। आस्तिक भी श्रद्धालु होता है, नास्तिक भी श्रद्धालु हो ता है। आस्तिक की श्रद्धा है कि ईश्वर है, नास्तिक की श्रद्धा है कि ईश्वर नहीं है।
वे दोनों अज्ञानी हैं। इन दोनों की श्रद्धाएं हैं, इन दोनों की खोज नहीं है। संदेह ती सरी अवस्था है, आस्तिक और नास्तिक दोनों ही नहीं। संदेह तो स्वतंत्र चित्त की अ वस्था है। वैसा व्यक्ति निर्भय होकर पूछता है, क्या है? और न वह परंपरा को मान ता है, न वह रूढ़ि को मानता है, न वह शास्त्र को मानता है। वह किसी दूसरे के दीये को अंगीकार नहीं करता। वह यही कहता है कि खोजूंगा अपने दीया। वही सा थी हो सकेगा। दूसरों के दीये कितनी देर तक, कितनी सीमा तक साथ दे सकते हैं और जीवन के इस रास्ते पर सच तो यह है कि अपने सिवाय, स्वयं के सिवाय कोई और साथी नहीं है।
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