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    मन की सारी क्रिया बाहर की यात्रा है, मन की अक्रिया भीतर की यात्रा है - ओशो

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    मन की सारी क्रिया बाहर की यात्रा है, मन की अक्रिया भीतर की यात्रा है - ओशो 


    सिकंदर हिंदुस्तान की तरफ आता था, रास्ते में वह एक फकीर डायोजनीज से मिलने गया। डायोजनीज़ लेटा था धूप में । सर्दी के दिन थे और धूप का आनंद ले रहा था नग्न। सिकंदर ने उसे लेटे देखकर कहा इतने खुश मालूम होते हो डायोजनीज़ और तुम्हारे पास जहां तक मैं देखता हूं, मैं तुमसे कह सकता हूं- तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। हालांकि तुम्हारे पास बहुत-कुछ दिखाई पड़ता है। मेरे पास जीवन है और तुम्हारे पास केवल मृत्यु से सुरक्षा की व्यवस्था की जो कुछ भी सुरक्षित नहीं कर पाएगा, क्योंकि जीवन का उसे कोई पता ही नहीं, जिसे सुरक्षित करना है, जैसे कोई अंधेरे से बचने का उपाय करे, और दिये का उसे पता न हो, क्या करेगा वह आदमी? अंधेरे से बचने के लिए। अंधेरे से बचने के लिए जो किया जा सकता है, सिवाय इसके लिए कि हम कल्पना कर लें कि अंधेरा ही प्रकाश है।

    इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं किया जा सकता और यही हमने किया है कि हम मृत्यु को ही जीवन कहने लगे हैं, जबकि हमें जीवन का कोई पता नहीं और मृत्यु से बचना अंधेरे से बचने को कोई भी उपाय नहीं होगा, सिवाय इसके कि प्रकाश आपके पास हो। प्रकाश है तो अंधेरा नहीं है। प्रकाश नहीं है तो अंधेरा है। प्रकाश का अभाव ही अंधेरा है। जीवन का हमें कोई पता नहीं, इसीलिए मृत्यु है। जीवन का हमें पता हो तो फिर मृत्यु नहीं, मृत्यु जीवन के अनुभव का अभाव है। मृत्यु की कोई सत्ता नहीं, अंधेरे की कोई सत्ता नहीं । सिकंदर ने कहा, तुम्हारी बात तो ठीक मालूम होती है। लेकिन अभी तो मैं विश्व की विजय को निकला हूं।

    डायोजनीस हंसने लगा, जो अपने को भी नहीं जीता पाया, वह विश्व की विजय को निकल पड़ता है, जो अपने को भी नहीं जीत पाया, वह जगत को जीतने निकल पड़ा है। विक्षिप्त हो गए हैं आप। शायद सचाई यह है कि इस बात का हमें पता न चले कि मैं अपने के नहीं जीत पाया, इसलिए हम जगत को जीतने में संलग्न हो जाते हैं। जगत को जीतने में तो इस बात को भूले रहते हैं कि मैं अपने को भी नहीं जीत पाया हूं,
    वैसा तो दुनिया में कोई भी आदमी नहीं हंस सकता था। वैसा तो वही हंस सकता है, जो जीवन को अनुभव करता हो, मृत्यु से घिरा हुआ आदमी हंस कैसे सकता है उसका हंसना ही भुलावा है, धोखा है, वंचना है। वैतरणी पर वह गूंजती हुई हंसी की आवाज उसने लौट कर पीछे देखा, वह नंगा फकीर डायोजनीज़ आ रहा है। हंस क्यों रहा है सिकंदर बहुत हतप्रभ हुआ और उसे खयाल आया कि डायोजनीज़ ने कहा था कि यह यात्रा अधूरी रह जाएगी। और तुम समाप्त हो जाओगे, अपने को जीत लो, दुनिया को जीतने की यात्रा कभी पूरी नहीं होती है, और आज यह बात सच हो गई और वह शायद इसलिए हंस रहा है

    लेकिन सिकंदर ने हिम्मत जुटाई, वह सम्राट था, एक फकीर के सामने हार जाएगा, उसने भी हंसने की कोशिश की। लेकिन हंसी बड़ी फीकी थी। हिम्मत बढ़ाने के लिए उसने जोर से चिल्लाकर डायोजनीज़ को कहा, बड़ा खुश हूं तुमसे मिलकर। शायद ही वैतरणी पर ऐसी घटना कभी घटी हो। एक बादशाह और एक भिखारी का मिलना हो रहा है, शायद ही कभी ऐसा हुआ हो वैतरणी पर इतना बड़ा बादशाह और तुम जैसा नंगा भिखारी। यह अपने में हिम्मत जुटाने के लिए उसने कहा था। लेकिन डायोजनीस और-और जोर से हंसने लगा। उसने कहा, तुम ठीक कहते हो—कहने में कि कौन बादशाह है, कौन भिखारी है। बादशाह पीछे है और भिखारी आगे है। सिकंदर आगे था, डायोजनीज़ कहने लगा, तुम ठीक कहते हो। एक बादशाह का एक भिखारी से मिलना, लेकिन जरा भूल करते हो, कौन बादशाह है, कौन भिखारी। मैं सब कुछ जीत कर लौट रहा हूं। क्योंकि मैंने जीवन को जाना है और तुम सब कुछ हार कर लौट रहे हो, क्योंकि तुमने जीवन के अतिरिक्त जो भी जीता जाता है, वह मृत्यु में विलीन हो जाता है और समाप्त हो जाता है।

    जीवन की विजय ही अकेली विजय है और जीवन की दिशा अंतरस्थ की, भीतर की दिशा है। और एक बार भीतर उदघाटन हो जाए जीवन का तो फिर सब तरफ उसके पर्दे उठ जाते हैं। सब दिखाई पड़ता है, वह सब जगह मौजूद है— फूल में भी, पत्थर में भी, चांद में भी, तारे में भी, मिट्टी में भी, कण-कण में वह जीवन है। फिर उसका नृत्य दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा, लेकिन पहले अपने में खोज लेना जरूरी है। एक दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं—जीवन की दिशा क्या है ? जीवन की दिशा अंतरस्थ की दिशा है और हमारा मन चौबीस घंटे बाहर और बाहर है, शायद ही कभी हम भीतर हैं। सच तो यह है कि जब तक मन काम करता है, हम बाहर ही होते हैं। जब मन कान नहीं करता तभी हम भीतर होते हैं। जब मन क्रिया में संलग्न होता है तब तक हम बाहर होते हैं, जब तक मन सोचता है तब तक हम बाहर होते हैं, जब तक मन कुछ भी करता है, तब तक हम बाहर होते हैं। मन की सारी क्रिया बाहर की यात्रा है, मन की अक्रिया भीतर की यात्रा है।

    - ओशो 

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