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    धर्म की कोई शिक्षा नहीं होती, धर्म की तो साधना होती है - ओशो

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    धर्म की कोई शिक्षा नहीं होती, धर्म की तो साधना होती है - ओशो 

    मैं एक गांव में गया। वहां एक अनाथालय भी देखने गया। वहां कोई पचास बच्चे थे । उस अनाथालय के संयोजक ने मुझसे कहा कि इनको हम धार्मिक शिक्षा भी देते हैं। मुझे यह समझ कर कि मैं साधु जैसा हूं उसने सोचा कि यह खुश होंगे कि धर्म की शिक्षा देता हूं। मैंने कहा कि उससे बुरा काम दूसरा नहीं है दुनिया में, क्योंकि धर्म की शिक्षा आप क्या देंगे? धर्म की कोई शिक्षा होती है? धर्म की तो साधना ह ती है, शिक्षा नहीं होती।

    अभी मैं सुनता हूं कि एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने अमरीका में एक संस्था खोली, जहां वह प्रेम की शिक्षा देते हैं। यह तो बड़ी बेवकूफी की बात है, यह तो बड़ी मू र्खतापूर्ण बात है। और इस संस्था से जो लोग प्रेम कि शिक्षा लेकर निकलेंगे, इस ज गत में वे प्रेम कभी नहीं कर पायेंगे। इसे स्मरण रखें, कैसे प्रेम करेंगे? वे जब भी प्रे म करेंगे, तब यह शिक्षा बीच में आ जायेगी और वह अभिनय करने लगेंगे, प्रेम नह " कर सकेंगे। जब उनके हृदय में कुछ कहने को होगा, तब वह उन किताबों से पढ़ कर कहेंगे, जिनमें लिखा हुआ है कि प्रेम की बातें कैसी कहनी चाहिए और तब वै सा आदमी, जो प्रेम में शिक्षित हुआ है, वंचित हो जाएगा और यह जो आदमी ध र्म में शिक्षित होगा, वह धर्म से वंचित हो जाएगा। धर्म तो प्रेम से बड़ी गूढ़ और र हस्य की चीज है। प्रेम को तो कोई सीख भी ले, धर्म को कैसे सीख सकेगा? धर्म क कोई लर्निंग नहीं होती। वह कोई गणित थोड़े ही है, कोई फिजिक्स थोड़े ही है, कोई भूगोल थोड़े ही है कि आपने समझा दिया, लागों ने याद कर लिया और परी क्षा दे दी। धर्म की कोई परीक्षा नहीं हो सकती है? ? अगर धर्म की परीक्षा नहीं हो सकती है तो शिक्षा भी नहीं हो सकती है। जिस चीज की परीक्षा हो सके, उसकी ही परीक्षा हो सकती है।

    तो मैंने उनसे कहा कि यह तो आप बड़ा बुरा काम कर रहे हैं। इन बच्चों के मन को बड़ा नुकसान पहुंचा रहे हैं, क्या शिक्षा देते होंगे? तो वे बोले-आप क्या कहते हैं , जब धर्म की शिक्षा नहीं होगी तो लोग बिलकुल बिगड़ जायेंगे। मैंने कहा-दुनिया में धर्म की इतनी शिक्षा है, लोग भले दिखाई पड़ रहे हैं। दुनिया में धर्म की इतनी शिक्षा है, जितनी बाइबिल दीखती है उतनी कोई किताब नहीं दीखती, जितनी गीत । पढी जाती है कोई किताब नहीं पढ़ी जाती, जितने रामायण के पाठ होते हैं, उत ने कौन-सी किताब के होते होंगे? कितने संन्यासी हैं, कितने साधु हैं। एक-एक धर्म के कितने प्रचारक हैं। कैथोलिक ईसाइयों के प्रचारकों की संख्या ग्यारह लाख है। और इसी तरह सारी दुनिया के धर्म-प्रचारकों की संख्या है। यह इतना प्रचार, इतनी शिक्षा. इसके बाद आदमी कोई बना हआ तो मालूम नहीं होता है। इससे बिगड़ी शक्ल और क्या होगी, जो आदमी की आज है।

    तो मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि धर्म।शिक्षा से आदमी नहीं ठीक होगा। मैंने उन से कहा-यह तो गलत बात है। फिर भी मैं समझू आप क्या शिक्षा देते हैं? उन्होंने कहा-आप कोई भी प्रश्न पूछिए, यह बच्चे हर प्रश्न का उत्तर देंगे। मैंने कहा-यही दु र्भाग्य है। सारी दुनिया में किसी से पूछिए, ईश्वर है? कह देगा, है। यही खतरा है। जिनको कोई पता नहीं है, वे कहते हैं है और इसका परिणाम यह होगा कि वह ध रे-धीरे अपने इस उत्तर पर खुद विश्वास कर लेंगे कि ईश्वर है और तब उनकी ख रोज समाप्त हो जाएगी।

    मैंने उन बच्चों से पूछा-आत्मा है? वे सारे बच्चे बोले-है। उनके संयोजक ने पूछा-आ त्मा कहां है? उन सब बच्चों ने हृदय पर हाथ रखा और कहा-यहां। मैंने एक छोटे बच्चे से पूछा-हृदय कहां है? उसने कहा-यह हमें सिखाया नहीं गया।यह हमें बताय [ नहीं गया। मैंने उन संयोजक से कहा-ये बच्चे जब बड़े हो जायेंगे तो यही बातें दोहराते रहेंगे। और जब भी प्रश्न उठेगा, आत्मा है तो यांत्रिक मैकेनिकल रूप से, उन के हाथ भीतर चले जाएंगे और वे कहेंगे, यहां। यह बिलकुल झूठा हाथ होगा, जो सीखने की वजह से चला जाएगा।

    आपके जितने उत्तर हैं परमात्मा के संबंध में, धर्म में वह सब सीखे हुए हैं। विवेक-जागरण के लिए पहली शर्त है, जो सीखा हुआ हो सत्य के संबंध में, उसे क चरे की भांति बाहर फेंक देना है। : जो आपके मां-बाप ने, आपकी शिक्षा ने, आपक । परंपरा ने, आपके समाज ने जो भी सिखाया हो, उसे कचरे की तरह बाहर फेंक देना। धर्म इतनी ओछी बात नहीं है कि कोई सिखा सके। इसमें मैं आपके मां-बाप का, आपकी परंपरा का अपमान नहीं रहा हूं, इसमें मैं आपके मां-बाप का, आपकी परंपरा का अपमान नहीं कर रहा हूं, इसमें मैं धर्म की प्रतिष्ठा कर रहा हूं। स्मरण रखें, मैं यह नहीं कह रहा कि परंपरा बुरी बात है।

    पहली बात है जिज्ञासा, स्वतंत्र जिज्ञासा और जो सिखाया गया है, उसे कचरे की भ ति फेंक देने की जरूरत। इसके लिए साहस चाहिए। अपने वस्त्र छोड़ कर नग्न हो जाने के लिए उतने साहस की जरूरत नहीं है, जितने साहस की जरूरत मन के उन वस्त्रों को छोड़ने के लिए है जो कि परंपरा आपको पहना देती है और उन ढांचों को तोडने के लिए है. जो समाज आपको दे देता है। हम सबके मन बंधे हुए हैं एक ढांचे में। और उस ढांचे में जो बंधा है, वह सत्य की उड़ान नहीं भर सकेगा। इस के पहले कि कोई सत्य की तरफ अग्रसर हो, उसे सारे ढांचे तोड़कर मिटा देने होंगे । मनुष्य ने जितने भी विचार परमात्मा के संबंध में सिखाया हैं. उन्हें छोड़ देना होगा।

     - ओशो 

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