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    मौन हमारा स्वभाव है - ओशो

    Silence-is-our-nature-Osho

    मौन हमारा स्वभाव है - ओशो 

    अनिषदों के समय में एक युवक सत्य की तलाश मग गया। उसने अपने गुरु के चरणों में सिर रखा और कहा, सत्य को पाना चाहते हो या सत्य के संबंध में कुछ पा ना चाहते हो? उसके गुरु ने कहा, सत्य को जानना चाहते हो या सत्य के संबंध में कुछ जानना चाहते हो। अगर सत्य के संबंध में कुछ जानना है तो फिर मेरे पास रुक जाओ, अगर सत्य को जानना है तो फिर मामला कठिन है।

    उस युवक ने कहा, मैं सत्य को जानने आया, संबंध में जानने को नहीं आया। संबंध में ही जानन होत तो मेरे पिता खुद बड़े पंडित थे। सभी शास्त्र वे जानते थे। लेकिन जब मैंने उनसे कहा कि मैं सत्य को जानना चाहता हूं तो उन्होंने कहा, मैं असमर्थ हूं, तू कहीं और खोज। मैं सत्य के संबंध में जानता हूं। मैं शास्त्रविद हूं, मुझे सत्य का कोई पता न हीं। मैं सत्य को ही जानने आया हूं।

    उसके गुरु ने कहा, तब ऐसा करो, इस आश्रम में जितने गाय बैल है, वे चार सी के करीब हज, इन सबको ले जाओ, दूर ऐसे जंगल में ले जाना, जहां कोई आदमी न हो, और जब यह गाय बैल हजार हो जाए, इनके बच्चे होंगे, और यह हजार हो जाएंगे, तब तुम लौट आना। और तब एक शर्त याद रखो, जो भी बात करनी हो, इन्हीं गाय बैलों से कर लेना, जो भी बात करनी हो इन्हीं से कर लेना। किसी आ दमी से मत बोलना जो भी तुम्हारे दिल में आए, इन्हें से कह लेना। इतने दूर चले जाना कि कोई आदमी न हो, और जब यह हजार हो जाए तो वापस लौट आना।

    वह युवक, उन चार सौ गाय बैलों को खदेड़कर जंगल में गया। दूर से दूर गया, ज हां कोई भी नहीं था। वहां वे जानवर और वह अकेला रह गया। उनसे ही बातें कर नी पड़ती है। जो भी कहना होता है, उन्हीं से कहना होता है। उनसे क्या कहता? उनसे क्या बात करता? उनकी आंखों में तो कोई विचार न थे। गाय की आंख कभ देखी है? जब आपकी भी आंख वैसी हो जाए तो समझना कि कहीं पहुंच गए। उ स आंख में कोई विचार नहीं है, खाली और शून्य| उन आँखों में देखता, उन्हीं के प सि रहता और उन्हीं को चराता, पानी पिलाता और अकेला उन्हीं के बीच सा जाता वर्ष आए और गए।

    कुछ दिन तक पुरानी घर की स्मृतियां चलती रही। लेक्ति नया भोजन न मिले तो पुरानी स्मृतियां मर जाती हैं। हम रोज नई स्मृतियों को भोजन दे देते हैं, इसलिए रिप्लेस होती चली जाती है। पुरानी मरती हैं, नयी भीतर पहुंच जाती है। अब नए का तो कोई कारण नहीं था। गाय बैल थे, उनके बीच रहना था, कोई नयी स्मृति का कारण न था। नई स्मृतियां पैदा न हुई, पुरानी को भोजन न । मला, वह क्रमश: मरती गयी, वह गाय बैल के पास रहते-रहते खुद गाय बैल हो गया। वह तो संख्या ही भूल गया।

    गुरु ने कहा था, हजार जब हो जाए तो इनको लि वा ले आना, लेकिन वह तो भूल ही गया। बड़ी मीठी कहानी है, उन गायों ने कहा, हम हजार हो गए। वापस लौट चलो। यह तो काल्पनिक ही होगा, लेकिन इसका मतलब केवल इतना था कि उसे पता नहीं था कब गाय बैल हजार हो गए। और ज व गायों ने कहा हम हजार हो गए लौट चलो, गुरु ने दूर से देखा, वह हजर गाय बैल का झुंड आता था। उसने अपने शिष्यों को कहा, देखो, एक हजार एक-एक ह जार एक गाय बैल आ रहे हैं। शिष्य बोले एक हजार एक? और बीच में वह जो यु वा है? उसने कहा, उसकी आँखों में देखा। अब वह आदमी नहीं रहा। अब वह आदमी नहीं है। और जब वह करीब आया तो गुरु ने उसे गले लगा लिया और गुरु ने कहा, कहो मिल गया? वह युवक चुप रहा। उसने कहा, केवल आपके चरण छूने अ
    या हूं। उसने गुरु के चरण छुए और वापस लौट गया।

    उस मौन में, उसने जान लिया जो जानने जैसा था। अब तक, जो सदगुरु है वह मी न देता है और जो असद गुरु है, वह शब्द देता है। जो सदगुरु है, वह आपके ग्रंथ छीन लेता है, जो असद गुरु है वह आपको ग्रंथ दे देता है, जो सदगुरु है, वह आप के विचार अलग कर लेता है, जो असदगुरु है, वह आपके भीतर विचार डाल देता है। यही होता रहा है। और अगर सत्य को जानना हो, सत्य के संबंध में नहीं, तो मीन हो जाएं, चुप हो जाएं और चुप्पी को साधे, मौन को साधे। हमने स्मरणपूर्वक नहीं साधा। इसलिए नहीं साध पाए हैं। साधेगे, निश्चित ही साधा जा सकता है। क्य है? क्योकि विचार को साधना ही कठिन है, मौन तो हमारा स्वभाव है। अगर हमने थोड़ा सा भी प्रयास किया तो स्वभाव के झरने फूट पड़ेंगे, जड़ता टूट जाएगी, बह ज एगी और चैतन्य का प्रवाह हो जाएगा।

    - ओशो 


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