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    जीवन वही हो जाता है, जिस भाव को लेकर हम जीवन में प्रविष्ट होते हैं - ओशो

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    जीवन वही हो जाता है, जिस भाव को लेकर हम जीवन में प्रविष्ट होते हैं - ओशो 


    एक छोटी-सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। एक महानगरी में एक नया मंदिर बन रहा था। हजारों श्रमिक उस मंदिर को बनाने में संलग्न थे, पत्थर तोड़े जा रहे थे, मूर्तियां गढ़ी जा रही थीं, दीवालें उठ रही थीं, एक परदेशी व्यक्ति उस मंदिर के पास से गुजर रहा था। पत्थर तोड़ रहे एक मजदूर से उसने पूछा, मेरे मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने क्रोध से अपनी हथौड़ी नीचे पटक दी, आंखें ऊपर उठाइ। जैसे उन आंखों में आग की लपटें हों, ऐसे उस मजदूर ने उस अजनबी को देखा और कहा-अंधे हैं, दिखाई नहीं पड़ता है, पत्थर तोड़ रहा हूं। यह भी पूछने और बताने की जरूरत है और वापस उसने पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया।

    वह अजनबी तो बहुत हैरान हुआ। ऐसी तो कोई बात उसने नहीं पूछी थी कि इतने क्रोध से उत्तर मिले, वह आगे बढ़ा और उसने मशगूल दूसरे मजदूर से, वह मजदूर भी पत्थर तोड़ता था, उससे भी उसने यही पूछा कि मेरे मित्र क्या कर रहे हो, जैसे उस मजदूर ने सुना ही न हो, बहुत देर बाद उसने आंखें ऊपर उठाइ, सुस्त और उदास हारी हुई आंखें जिनमें कोई ज्योति न हो, जिनमें कोई भाव न हो और उसने कहा कि क्या कर रहा हूं, बच्चों के लिए, पत्नी के लिए रोजी-रोटी कमा रहा हूं। उतनी ही उदासी और सुस्ती से उसने फिर पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया।

    वह अजनबी आगे बढ़ा और उसने तीसरे मजदूर से पूछा वह मजदूर भी पत्थर तोड़ता था। लेकिन वह पत्थर भी तोड़ता था और साथ में गीत भी गुनगुनाता था। उसने उस मजदूर से पूछा मेरे मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने आंखें ऊपर उठाइ। जैसे उन आंखों में फूल झड़ रहे हों खुशी से, आनंद से भरी हुई आंखों से उसने उस अजनबी को देखा और कहा—देखने नहीं भगवान का मंदिर बना रहा हूं। उसने फिर गीत गाना शुरू कर दिया और पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया।

    वे तीनों व्यक्ति ही पत्थर तोड़ रहे थे, वे तीनों व्यक्ति ही एक ही काम में संलग्न थे लेकिन एक क्रोध से तोड़ रहा था, एक उदासी से तोड़ रहा था, एक आनंद के भाव से। जो क्रोध से तोड़ रहा था उसके लिए पत्थर तोड़ना सिर्फ पत्थर तोड़ना था, और निश्चय ही पत्थर तोड़ना कोई आनंद की, कोई अहोभाग्य की, बात नहीं हो सकती और जो पत्थर तोड़ रहा था स्वभावतः सारे जगत के प्रति क्रोध से भर गया हो तो आश्चर्य नहीं, जिसे जीवन में पत्थर ही तोड़ना पड़ता है, वह जीवन के प्रति धन्यता का कृतज्ञता का, भाव कैसे प्रकट कर सकता है। दूसरा व्यक्ति भी पत्थर तोड़ रहा था। लेकिन उदास था, हारा हुआ था। जो जीवन को केवल आजीविका बना ले, जो जीवन को केवल रोजी-रोटी का अवसर बना ले, वह स्वभावतः ही उदास और हारा हुआ हो जाने को है।

    जीवन आजीविका बन कर आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता, तब जीवन होगा एक बोझ, तब जीवन होगा एक हारा हुआ उपक्रम, जिसमें प्रतिपल मृत्यु निकट आती चली जाती है, जिसे किसी तरह ढोना है और पूरा कर लेना है, वह आनंद का एक गीत नहीं, उदासी की एक कथा है, वह आनंद का एक उत्सव नहीं, कर्तव्य का एक बोझ है, जिसे निपटा देना है। तीसरा व्यक्ति आनंद से तोड़ता था, पत्थर को वह भी तोड़ रहा था। वे पत्थर भी ठीक वैसे ही पत्थर थे जैसे दूसरे मजदूर तोड़ रहे थे। उसके पत्थर तोड़ने के क्रम में भी कोई भेद न था, लेकिन वह भगवान का मंदिर बना रहा था, जीवन वह अगर आनंद को उपलब्ध हो जाए तो आश्चर्य कैसा। जीवन वही हो जाता है, जिस भाव को लेकर हम जीवन में प्रविष्ट होते हैं, जीवन वही हो जाता है, जो हम उसे बनाने को आतुर, उत्सुक और प्यासे होते हैं। जीवन मिलता नहीं, निर्मित करना होता है। जीवन बना-बनाया उपलब्ध नहीं होता सर्जन करना होता है।

    -  ओशो 

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