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    भीतर चेतना है, अंतर्गृह है, जीवन स्पंदन है - ओशो

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    भीतर चेतना है, अंतर्गृह है, जीवन स्पंदन है - ओशो 

    एक जर्मन विचारक हेरिडेल पूरब की यात्रा को आया हुआ था। वह पूरब के मुल्कों में उन लोगों की तलाश में था, जिन्हें जीवन उपलब्ध हो गया हो। वर्षों भटकता रहा, लेकिन उसे वह आदमी दिखाई नहीं पड़ा, जिसे जीवन उपलब्ध हो गया हो। उसे संन्यासी मिले, उसे साधु मिले, लेकिन वे भी उसे मृत्यु की तरफ ही जाते हुए मालूम हुए। वे भी नहीं दिखाई पड़े। जिन्हें वह किरण, वह सूत्र मिल गया है, जो जीवन की तरफ ले जाने वाला है। फिर वह थक गया और वापस लौटने को था उन दिनों जापान में था और जिस दिन लौटना था—किसी ने कहा एक संन्यासी को मैं और जानता हूं। जाने के पहले उससे और मिल लें। इतने दिनों की खोज के बाद वह निराश हो गया था। फिर उसने सोचा कि क्यों एक मौका और है। एक मौका और खोजने का है। कई बार ऐसा होता है कि आदमी यात्रा के अंतिम चरण से वापस लौट आता है, कई बार ऐसा होता है कि एक हाथ और खोदा जाता और कुएं में पानी आ जाता। कौन जानता है यह आदमी, वही आदमी हो, जिसकी उसे खोज हो।

    वह उस साधु के पास गया। उसे निमंत्रित किया भोजन के लिए उस जापान के छोटे नगर में एक बड़े होटल में उस साधु को आमंत्रित कुछ और मित्रों को बुलाया। वे सात मंजिल मकान में लकड़ी के मकान में बैठकर बातें करते थे। भोजन करते थे। उस साधु से कुछ पूछा था। वह उत्तर देता था, फिर अचानक भूकंप आ गया। सारे मकान कंप गए। पास के मकान गिर गए, हाहाकार मच गया। फिर कौन वहां बैठता, भोजन के लिए, कौन वहां साधु को सुनने को रुकता। सारे लोग भागे। सात मंजिल मकान था, लकड़ी का हवा में कंप रहा था, पत्ते की तरह, जो किसी भी क्षण गिरता और प्राण जाते। लोग भागे, लेकिन कोई पच्चीस-तीस लोग थे संकरी सीढ़ियां थीं और भीड़ हो गई और लोग रुक गए। हेरिडेल भी भागा। लेकिन भीड़ थी, रास्ता नहीं था, सीढ़ियों पर उसे खयाल आया-मैं मेजबान हूं(होस्ट) हूं और मैं भागा जा रहा हूं। मेहमान का क्या हुआ—अतिथि कहां है, लौटकर उसने देखा जिस साधु को बुला लाए थे, वह अपनी जगह बैठा है, वह भागा नहीं है। उसके चेहरे पर भागने का कोई खयाल भी नहीं है। उसकी आंख जरूर बंद है और वह ऐसा भी नहीं मालूम होता जैसे कोई आदमी हो। इतना शांत मालूम होता है जैसे कोई मूर्ति हो।

    हेरिडेल के मन में हुआ कि मैं भाग जाऊं मेहमान का खतरे में छोड़कर यह तो शिष्टता न होगी, रुक जाना चाहिए। फिर यह भी खयाल आया कि जो उसका होगा वही मेरा भी होगा। किसी तरह अपने को रोक कर वह भी साधु की कुर्सी पर बैठ गया। हाथ-पैर कंपते हैं, उसके प्राण डरे हुए हैं। खतरा है, मौत का। लेकिन दस पांच क्षण और—और भूकंप चला गया। उस साधु ने आंख खोली और भूकंप के जाने से बात टूट गई थी, जहां से, वहीं से बात शुरू कर दी। हेरिडेल तो हैरान हुआ जैसे कि भूकंप आया ही न हो। उसने उस साधु से कहा- हम भूल गए थे कि क्या बात होती थी भूकंप आने के पहले। इतनी बड़ी घटना घट गई, इतना बड़ा विनाश हो गया है, हम इतने घबड़ा गए हैं कि मुझे याद भी नहीं कि हमने क्या पूछा था। आप छोड़ें उस बात को अब अब तो मुझे दूसरी ही बात पूछनी है। भूकंप आया, आप भागे नहीं? भूकंप का क्या हुआ?

    उस साधु ने कहा, भागा तो मैं भी, भागे तुम भी, लेकिन तुम बाहर की तरफ भागे और मैं भीतर की तरफ भागा। और मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारा भागना बिलकुल व्यर्थ था, क्योंकि तुम भाग रहे थे वहां भी भूकंप था। भूकंप से ही भूकंप में भागने का क्या अर्थ है? क्या प्रयोजन, क्या अभिप्राय है? शायद तुम पागलपन में भाग रहे थे, क्योंकि भूकंप से भूकंप में भागने से कौन-सा अर्थ है? शायद तुम्हें कुछ सूझ नहीं पड़ता था। इसलिए भाग रहे थे। मैं उस जगह भागा जहां कोई मुकाम कभी नहीं पहुंचता है। मैं भीतर की तरफ भागा, मैं उस जगह भागा जहां मृत्यु की कोई छाया कभी नहीं पहुंचती। मैं जीवन की तरफ भागा। अगर हम जीवन में निरंतर बाहर की तरफ भाग रहे हैं तो स्मरण रहे कि जीवन की कला को कभी-भी नहीं सीखा जा सकता। बाहर मृत्यु है, बाहर भूकंप है, भीतर जरूर चेतना है, अंतर्गृह है, वहां जीवन स्पंदन है। यहां जहां से जीवन का बीज फूटता और अंकुरित होता है, वहां लौटें तो ही जीवन को जाना और जीया जा सकता है।

     - ओशो 

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