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    साधू- सन्यासियों की शांति झूठी है - ओशो

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    साधू- सन्यासियों की शांति झूठी है - ओशो 

              एक विदेशी यात्री पूरब के मुल्कों में यात्रा को आया और उसने सोचा कि मैं देखू अ और समझू कि योग क्या है। उसने भारत के और तिब्बत के और जापान के, पूर्वी मुल्कों में जाकर आश्रम देखे। फिर वह बर्मा गया और वहां लोगों ने तारीफ की कि एक आश्रम यहां भी है, उसे भी देखो। उसने जो आश्रम भारत में देखे थे, वे पहाड़ों पर थे, रग्य झीलों के किनारे थे, सुंदर उपवन थे, वहां थे। भारत में जो संन्यासी देखे थे. वे घर छोड़े हए लोग थे, नए-नए वस्त्रों के लोग थे। उसने सोचा, वैसा ही कोई रम्य स्थल होगा।

            वह तीन सप्ताह का निर्णय करके बर्मा के उस आश्रम के लि ए गया। लेकिन जब जिस गाड़ी से वह गया और जब उसे पहुंचाया गया आश्रम के सामने, तो वह दंग रह गया। वह तो एक बाजार था, जहां आश्रम था और रंगून का सबसे रद्दी बाजार था और वहां तो बड़ी भीड़ भाड़ थी बड़ा शोर गल था। और वहीं वह छोटी सी तख्ती लगी थी और एक गंदे रास्ते के अंदर जाकर एक आश्रम था। आश्रम बड़ा था, पांच सौ भिक्षु वहां थे। लेकिन कोई सौ डेढ़ सौ कुत्ते वहां धूम रहे थे और लड़ रहे थे और बड़ा परेशान हुआ कि यह कैसा आश्रम है। और सांझ का वक्त था और सैकड़ों हजारों कौवे इकट्ठे हो रहे थे, झाड़ों पर। इतना शोरगुल वहां मचा था, उसने सोचा, यह आश्रम है या बाजार है। यहां रहने से क्या फायदा होगा।

              लेकिन आ गया था और जब रात भर रुकना ही पड़ेगा, सुबह के पहले वापस लौट ने के लिए कोई गाड़ी भी नहीं थी। तो उसने जाकर प्रधान से मिलना चाहा। प्रधान से कहा, मैं तो हैरान हो गया। मैं तो सोचता था, आश्रम किसी पहाड़ के किनारे य । किसी झील के पास किसी सुंदर जगह में होगा। वह तो गंदा बाजार है और यहां इतने कते किस लिए हैं और यह कौवे इतने किस लिए इकट्ठे कर लिए हैं। उस साधू ने कहा, यह कुत्ते जो हैं, यह हमारे पाले हए हैं और कौवे जो हैं. हमारे आमंत्रित हैं। इन्हें हम रोज चावल देते हैं, इसलिए जाते हैं, और कुत्ते तो हमने पाले हुए हैं। यह शोरगुल व्यवस्थित है। यह बाजार हमने चुना है, जानकर। जमीन बहुत थी हमारे मुल्क में सुंदर, लेकिन बाजार हमने जानकर चुना है। क्योंकि हमारी म न्यता यह है कि जो इस भीड़ भाड़ में, इस उपद्रव में शांत हो सकता है, उसकी शांति ही सच्ची है। और जो पहाड़ के पास जाकर बैठकर शांत हो जाता है उस शांति में, उसके पास कोई शांति नहीं है। वह सारी शांति पहाड़ की है, और पहाड़ से नीचे उतरते अशांति शुरू हो जाएगी।
              इसलिए संन्यासी पहाड़ से बस्ती में आने से डरते है। इसलिए संन्यासी अकेलेपन से भीड़ में आने से डरता है। इसलिए संन्यासी लोगों से डरने लगता है कि उनके पास गया कि मेरी सब शांति नष्ट हो जाएगी। अगर आप किसी संन्यासी से कहें, दुकान पर बैठो, वह घबड़ाएगा, वह कहेग, मेरी सब शांति नष्ट हो जाएगी। अगर आप किसी संन्यासी से कहें, नौकरी करो, वह क हेगा, मैं घबड़ाऊंगा, मेरा परमात्मा छूट जाएगा। जो परमात्मा नौकरी करने से छूट जाता हो और जो परमात्मा दूकान पर बैठ जाने से अलग हट जाता हो, ऐसे परमात्मा की कोई कीमत नहीं है। ऐसे परमात्मा का कोई मूल्य नहीं है।

              जीवन की सहजता में, और सामान्यता में जो उपलब्ध हो, वही सत्य है। जीवन की सत्य स्थितियों में जो उपलब्ध हो, उन स्थितियों का परिणाम होता है, आपके चित्त का परिवर्तन न ही होता है। इसलिए आप जितने संन्यासियों को देखते है, उनको वापस ले आइये और सामान्य जिंदगी में डाल दीजिए और फिर पहचानिए कि उनके भीतर क्या है तो आप जाएंगे कि यह आदमी आपसे गए बीते और बदतर लोग हैं। यह आपसे नीचे सा बत होंगे। जिंदगी में यह नहीं टिक सकते। वहां कसौटी है, वहां परीक्षा है। यह एक कोने में बैठे हुए हैं। इनकी सारी शांति आरोपित और पलायन की शांति है इसलि ए इनके भीतर भय और डर बना रहता है। इनके भीतर घबड़ाहट बनी रहती है। इ नके भीतर हमेशा डर बना रहता है कि अगर मैं गया तो सब गड़बड़ हो जाएगा।

     - ओशो 

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