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    मनुष्य खुद की ही बनायी हुई जंजीरों में जकडा हुआ है - ओशो

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    मनुष्य खुद की ही बनायी हुई जंजीरों में जकडा हुआ है - ओशो 

              रोम में एक बहुत अदभुत लोहार हुआ। उसकी बड़ी क्रांति थी, सारे जगत में। दूर-दू र के बाजारों तक उसका सामान पहुंचा उसने बहुत धन अर्जित किया। लेकिन जबवह अपनी प्रतिष्ठा के चरम शिखर पर था और रोम के सौ बड़े प्रतिष्ठित नागरिकों में उसकी स्थिति बन गयी थी, तभी रोम पर हमला हुआ। दुश्मन ने रोम को रौंद डाला और सौ बड़े नागरिकों को गिरफ्तार कर लिया। उनके हाथ पैरों में बहुत मज बूत जंजीरें पहना दी गयीं और उन्हें फिंकवा दिया गया जंगलों में, ताकि जंगली जानवर उन्हें खा जाए। वे जंजीरें बहुत मजबूत, बहुत वजनी थी। उसके रहते एक कदम चलना भी मुश्किल था, असंभव था। वे निन्यानबे लोग तो रो रहे थे छार-छार। उनके हृदय आंसुओं से भरे थे। उनके सामने मृत्यु के सिवाय कुछ भी नहीं था, लेकिन वह लोहार बहुत कुशल कारीगर था। वह हंस रहा था, वह निश्चित था। उसे खयाल था, कोई फिकर नहीं, कैसी ही जंजीरें हों, मैं खोल लूंगा।

              अपने बच्चों को, अपनी पत्नी को विदा देते वक्त उसने कहा, घबड़ाओ मत, सूरज डूबने के पहले मैं घर वापस आ जाऊंगा। पत्नी ने भी सोचा, बात ठीक ही है। वह इतना कुशल कारी गर था। जब उन सब को जंगलों में फिंकवा दिया गया, वह लोहार भी एक जंगली खड्डे में डाल दिया गया। गिरते ही उसने पहला काम किया, अपनी जंजीरें उठा कर देखीं कि कहीं कोई कमजोर कड़ी हो, लेकिन जंजीरों को देखते ही वह छाती पीट पीटकर रोने लगा। उसकी हमेशा से आदत थी, जो भी बनाता था, कहीं हस्ताक्षर कर देता था। जंजीरों पर उसके ही हस्ताक्षर थे। वह उसकी ही बनायी हुई जंजीरें हैं। उसने कभी सोचा थी न था कि जो जंजीरें मैं बना रहा हूं, वे एक दिन मेरे ही पैरों में पड़ेंगी और मैं ही बंदी हो जाऊंगा। अब वह रोने लगा। रोने लगा इसलिए कि अगर यह जंजीरें किसी और की बनायी हुई होती तो तोड़ भी सकता था।  वह भली भांति जानता था, कमजोर चीजें बनाने की उसकी आदत नहीं, यही तो उसकी प्रा तष्ठा थी। जंजीरें उसकी बनायी हुई थीं। उन्हें तोड़ना मुश्किल था, वे कमजोर थी ही नहीं।

              उस कुशल कारीगर को जो मुसीबत अनुभव हुई होगी, हर आदमी को, जिस दिन व ह जागकर देखता है, ऐसी ही मुसीबत अनुभव होगी। तब वह पाता है, हर जंजीर । पर मेरे हस्ताक्षर हैं और हर जंजीर मैंने इतनी मजबूती से बनायी है, क्योंकि मैंने त ने इसे स्वतंत्रता सोचकर बनाया था, कभी सोचा भी न था कि यह जंजीर है। तो स्व तंत्रता को खूब मजबूती से बनाया था। मैंने इसे धर्म समझा था, खूब मजबूती से तै यार किया था। मैंने इसे मंदिर समझा था, मैंने कभी सोचा भी न था कि यह कारा गृह है। तो खूब मजबूत बनाया था। उस लोहार की जो हालत हो गयी, वह करीबकरीब हर आदमी को अनुभव होती है, जो जागकर अपनी जंजीरों की तरफ देखता है।

    - ओशो 

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