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    दूसरे के जैसे बनने की कोशिश आदमी को बहुत गहरे बंधन में ले जाती है - ओशो

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    दूसरे के जैसे बनने की कोशिश आदमी को बहुत गहरे बंधन में ले जाती है

              अंधानुकरण, किसी दूसरे जैसे बनने की कोशिश में आदमी बहुत गहरे बंधन में पड़ता है। और बंधन में इसलिए पड़ता है कि दूसरे जैसा तो वह कभी बन ही नहीं सकता है, इसलिए कि असंभावना है, यह इंपोसबिलिटी है। लेकिन इस कोशिश में, अभिनय कर सकता है दूसरे जैसा। उसकी आत्मा अलग हो जाती है, अभिनय अलग हो जाता है। राम तो बन नहीं सकता है कोई, लेकिन रामलीला का राम बन सकता है। राम लीला का राम बिलकुल झूठा आदमी है। ऐसे आदमी की जमीन पर कोई भी जरूरत नहीं है। राम लीला का राम एक अभिनय है, एक एक्टिग है। ऊपर से हम कुछ ओढ़ ले सकते हैं, भीतर आत्मा होगी पृथक, यह ओढ़े हुए वस्त्र होंगे अलग। इन दोनों के बीच एक द्वंद होगा, एक काफिलक्ट होगी, एक सतत कलह होगी, और अभिनय कभी भी आनंद नहीं ला सकता। देखने वालों को लाता हो, यह दूसरी बात है, लेकिन जो अभिनय कर रहा है, वह निरंतर यह पीड़ा अनुभव करता है कि मैं किसी और जगह खड़ा हूं, मैं अपनी जगह नहीं हूं। मैं कोई और हूं, मैं वही नहीं हूं, जो हूं।

              वैसा आदमी कभी आत्म स्थित नहीं हो पाता, क्योंकि वह निरंतर दूसरे के अभिनय में व्यस्त होता है। यह भी हो सकता है कि कोई राम का अभिनय इतनी कुशलता से करे कि खुद राम भी मुसीबत में पड़ जाए, यह हो सकता है। क्योंकि अभिनेता को भूल चूक नहीं करनी पड़ती है, उसका सब पार्ट रटा हुआ तैयार होता है। खुद राम से भूल चूक हो सकती है, क्योंकि पाठ तैयार नहीं है, पहले सब सिखाया हुआ नहीं है। जिंदगी रो ज सामने आती है। असली आदमी भूल चूक कर सकता है, नकली आदमी कभी भूल चूक नहीं कर सकता इसलिए जो आदमी कभी भूल चूक न करता हो, समझ लेना, उस आदमी में कुछ नकली मौजूद है। वह किसी ढांचे में ढला हुआ आदमी है, उससे ज्यादा नहीं है।

    -ओशो 


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