सत्य को पाने की पहली शर्त तो अभय है - ओशो
अभिभावक बच्चों को प्रेम तो दें, लेकिन अपने विश्वास न दें, अपनी श्रद्धाएं न दें, अपने विचार न दें - ओशो
जो कमजोर है, वह सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। विश्वास भय है। विश्वास आपके किसी न किसी रूप में भय पर, घबड़ाहट पर, डर पर खड़ा हुआ है। और जो डरा हुआ है, भयभीत है, वह सत्य को कैसे पा सकेगा।सत्य को पाने की पहली शर्त तो अभय है। उसे पाने की पहली बुनियाद तो भय को छोड़ देना है। लेकिन हमारे धर्म, हमारे संप्रदाय, हमारे पुरोहित, हमारे पादरी, हमारे धर्म गुरु, हमारे संन्यासी भय सिखाते हैं। उनके भय सिखाने के पीछे जरूर कोई कारण है। छोटे-छोटे बच्चों के मनों में भी हम भय को भर देते हैं, और छोटे-छोटे बच्चों के मनों में भी हम श्रद्धा को पैदा करना चाहते हैं। इसके पहले कि वे विचार में सजग हो सकें, हम किसी तरह के विश्वास में उनको आबद्ध कर देना चाहते हैं
दुनिया के सारे धर्म, बच्चों के साथ जो अनाचार करते हैं, उससे बड़ा कोई अनाचार नहीं है। इसके पहले कि बच्चे की जिज्ञासा जाग सके, वह पूछे कि क्या है, हम उसके दिमाग में वे बातें भर देते हैं जिनका हमें भी कोई पता नहीं है। हम उसे हिंदु, मुसलमान, जैन या ईसाई बना देते हैं। हम उस उसे कुरान या बाइबिल या गीता रटा देते हैं। हम उसे कह देते हैं, ईश्वर है या ईश्वर नहीं है। फिर यह ही विश्वास जीवन भर कारागृह की तरह उसकी चेतना को बंद किए रहेंगे यह वह कभी साहस नहीं कर सकेगा कि सत्य को जान सके। बच्चों के साथ, अगर किन्हीं मां बापों को, किन्हीं गुरुओं को, किन्हीं अभिभावकों को प्रेम हो, तो उन्हें पहला काम करना चाहिए कि उन्हें अपना प्रेम तो दें, लेकिन अपने विश्वास न दें, अपनी श्रद्धाएं न दें, अपने विचार न दें। उन्हें उन्मुख रखें, उनकी जिज्ञासा को जगाए, लेकिन उनकी जिज्ञासा को समाप्त न करें। श्रद्धा जिज्ञासा को तोड़ देती है और नष्ट कर देती है। हम सारे लोग ऐसे ही लोग हैं, जिनकी जिज्ञासाएं बचपन में तोड़ दी गयी हैं, और जो किसी न किसी तरह की श्रद्धा, अपने किसी न किसी तरह के विश्वास, किसी न किसी तरह के बिलीफ को पकड़ के बैठ गए हैं। वह विश्वास ही हमें ऊपर नहीं उठने देता। वह विश्वास ही ह में विचार करने देता। वह विश्वास कहें गलत न हो, इसलिए हमें जिज्ञासा नहीं कर ने देता।
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