सिद्धार्थ उपनिषद Page 168
सिद्धार्थ उपनिषद Page 168
(455)
" नर नारी में , नारी नर में , आनंद खोजता बाहर में
सच्चिदानंद जबकि बैठा आवाज दे रहा भीतर में
दूजे से सुख का मोह तजो , गोविन्द भजो गोविन्द भजो . "
आदमी की चेतना की दिशा बाहर है इसलिए वह दुखी है . चेतना की दिशा भीतर हो जाए तो वह सुखी है . सभी संत जगाते हैं . मगर कोई सुनता नहीं है , सुनता है तो समझता नहीं है , समझता है तो करता नहीं है .
जिसने आत्मा को नहीं जाना वह व्यर्थ आया और व्यर्थ गया . अगर तुमने आत्मा को नहीं जाना तो तुम जी नहीं रहे हो , बस समय काट रहे हो . इसलिए सभी संत कहते हैं आत्मवान होकर जियो . परमात्मा है कि नहीं यह तर्क का विषय हो सकता है . मगर तुम हो ये वाद-विवाद का विषय नहीं हो सकता है . पूंछो कि ' मैं कौन हूं . ' और तुम एक न एक दिन जान लोगे कि ' मैं निराकार चैतन्य हूं . '
(456)
" बंध विषयों में रस , मुक्ति उनसे विरस
ज्ञान इतना ही है हे ! मुमुक्षु जनक . "
ज्ञान सिर्फ इतना हि है कि तुमने जान लिया कि आनंद भीतर है , तृप्ति भीतर है . पर हमारी सुरति भीतर नहीं लग रही है .वह लग रही है विषय भोगों में . पर याद रखना आज तक किसी को बाहर तृप्ति नहीं हुई . एक भी उदाहरण इतिहास में नहीं है कि किसी को बाहर तृप्ति हुई हो . लेकिन हमारी मूढ़ता देखो हमने मान लिया है कि संसार सुख देगा . सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है आत्मवान होना . आत्मवान होने से ही तृप्ति मिलती है . आनंद जब भी पाओगे अपने भीतर पाओगे .