सिद्धार्थ उपनिषद Page 155
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" जाप मरे अजपा मरे , अनहद हू मर जाए
राम सनेही न मरे , कहे कबीर समुझाए . "
अनहद नाद सर्वत्र गूँज रहा है . अस्तित्व का नाद है , अस्तित्व का संगीत है . हमारे भीतर भी गूँज रहा , हमारे चारो तरफ आकाश में भी गूँज रहा है . सब तरफ गूँज रहा है . शाश्वत नाद है , अमर है उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है .
वह सदा सदा से एकरस है . इसलिए अनाहत नाद का क्षय नहीं होता है . लेकिन कबीर साहब तो कह रहे है - " जाप मरे अजपा मरे , अनहद हू मर जाए . राम सनेही न मरे , कहे कबीर समुझाए . " नहीं ! यह समाधि की बात कह रहे हैं . जब तुम समाधि में जाओगे तो वहां अनाहत नाद कहां याद रहता है , अर्थात अनाहत नाद भी छूट जाता है . क्यों ? क्योंकि अब तुम्हारा जो होश है वह किसी के प्रति नहीं है . नाद के प्रति कि नूर के प्रति , प्रति ही गायब हो गया . तो कबीर साहब कह रहे हैं अब नाद भी छोड़ो ; अब सिर्फ होश . ओशो की भाषा कहें तो " जस्ट अवेयरनेस " , बोधमात्र : वह समाधि की अवस्था है . अर्थात तुम्हारे लिए अब अनाहत नाद गौण हो गया है . लेकिन अनाहत नाद तो है ,अनाहत नाद सदा रहता है वो न मरता है न मिटता है .