सिद्धार्थ उपनिषद Page 149
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राधास्वामी मत के प्रवर्तक शिवदयाल सिंह जी हैं . प्यार से उन्हें स्वामी जी महाराज कहा जाता है . उन्होंने सुंदर बात कही है-- " मोटे बंधन जगत के गुरुभक्ति से काट , झीने बंधन चित्त के कटे नाम प्रताप . "बस दो ही बंधन हैं . एक ' मेरा ' और एक ' मैं ' , एक ममता और एक हमता , एक मोह और एक मान , अलग-अलग शब्द हैं शब्दों पर मत जाना . असली बात है ' मेरापन ' और ' मैंपन ' ; मुक्ति में ये ही दो बाधा हैं .
' मेरा ' बंधन क्या है ? मेरा परिवार , मेरा मकान , मेरी पत्नी , मेरे बच्चे ... अधिकार जमा दिया तुमने और इस अधिकार में तुम खुद ही उलझते चले जाते हो . और सारी जिंदगी ' मेरे ' में उलझे रहते हो . बस एक परिवार तक हमने अपने को मान लिया है . बस यही मोटा बंधन है .
इससे मुक्त होने का क्या उपाय है ? " गुरु को अपना बना लो , गुरु उपहार है तुम्हारी जिंदगी में , अधिकार नहीं . " पत्नी पर तुम अधिकार जमा सकते हो गुरु पर नहीं . और जब गुरु से तुम्हारा नाता जुडेगा तब तुम सबका सम्मान करने लगते हो . क्योंकि गुरु बताता है सब बंदे खुदा हैं ; पत्नी के रूप में पत्नी को मत देखो खुदा के बंदे के रूप में देखो . बेटे को बेटे के रूप में मत देखो परमात्मा के उपहार के रूप में देखो . और तब तुम एक सम्मान से भर जाओगे . ध्यान रखना सम्मान और अधिकार साथ-साथ नहीं चलता है . जिसका तुम सम्मान करते हो उस पर तुम अधिकार नहीं जमा सकते .
भारतवर्ष में जो पति-पत्नी का इंस्टिटयूशन है : पहले बड़ा वार्म था . अब बात बहुत बिगड गई है . गाँव में कम बिगड़ी है शहरों में ज्यादा बिगड गई है . मैं इस दृश्य में बदलना चाहता हूं . कम से कम ओशोधारा परिवारों के लिए बदलना चाहता हूं . तुम सम्मान करो एक दूसरे का और तुम देखोगे चीजें बदल जाएंगी . फिर से ऊष्णता आ जाएगी , फिर से प्रेम आ जाएगा . समान की संस्कृति पर आधारित हो परिवार हमारा . तो परिवार स्वर्ग हो सकता है . अभी अधिकार की संस्कृति पर परिवार आधारित है - नर्क हो गया है . बस एक दूसरे का मित्रवत सम्मान करें फिर देखोगे जीवन में उमंग आ जाती है . तो ये जो मोटा बंधन है ये सम्मान से कटेगा .लेकिन सीखोगे कहां इस पाठ को , कहां सीखोगे -- सद्गुरु से . गुरु के प्रेम में तुम पड़ गए तो संसार का बंधन ढीला हो जाता है गुरु तुमको समझायेगा कि अभी तुम्हारी जिंदगी कूप- मंडूप की तरह है , गुरु पूरी वसुधा को तुम्हारा परिवार बना देता है-- " वसुधैव कुटुम्बकं " . तो जगत के मोटे बंधन गुरु-भक्ति से कट जाते हैं .
और जब भीतर ओंकार की साधना शुरू होती है तो एक दिन पाते हो कि मैं तो हूं ही नहीं , मैं तो उस विराट का एक अंश हूं , मेरा कोई अलग अस्तित्व नहीं है . फिर ' मैं ' का जो मिथ्याभिमान है वह नष्ट हो जाता है . और फिर तुम मुक्त हो जाते हो .