सिद्धार्थ उपनिषद Page 142
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संत आध्यात्म के मैदान के खिलाड़ी होते हैं. बहुत अच्छे से खेलते हैं.लेकिन संतों की इस परम्परा में हमारी थोड़ी भिन्न पहचान है.
हम खेलने के साथ-साथ जरा गोल करने में भी उत्सुक रहते हैं.
हमारे परम गुरु ओशो आध्यात्म के मैदान के श्रेष्ठतम खिलाड़ी रहे.
इसमें कोई शक नहीं.
मुझे याद है की बचपन में.. बचपन में नहीं बल्कि १९-२० साल का रहा हूँगा..एक फूटबाल मैच खेलने का मुझे अवसर मिला- वहां पर मोहन बागान के रिटायर प्लेयर थे. मैं विपक्ष में था. हाल्फ टाइम तक हमारी टीम ने ६ गोल से लीड ले लिया था. हम प्रसन्न थे की हमने प्रसिद्ध टीम को हरा दिया है. जब समय केवल १५ मिनट रह गया तो उसने हमसे पूछा - " अब आप खेल चुके? हम खेलना शुरू करें ?.. मैंने कहा की क्या अब तक आप खेल नही रहे थे?
उन्होंने कहा की नहीं अभी तक आपका खेल देख रहे थे!
और अंतिम १५ मिनट में उन्होंने ८ गोल करके अपनी टीम को जीता दिया... ओशो कुछ उसी तरह के परिपक्व खिलाड़ी थे.
और वे ये जानते थे की जब चाहे गोल कर देंगे- लेकिन यह श्रेय उन्होंने स्वयं नहीं लिया- अपने बाद आने वाली अगली पीढ़ी को दे दिया. सद्गुरु त्रिविर की वर्तमान पीढी को दे दिया.
आज साधना के क्षेत्र में जो गोल हो रहे हैं- लोग ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर रहे हैं. समाधि को प्राप्त कर रहे हैं.सुरती की साधना पर चल रहे हैं- निरति की साधना पर चल रहे हैं.शब्द की साधना , अद्वैत, निर्वाण, चैतन्य पद, ब्रह्म पद घटित हो रहा है- तो ये समझना की जो पास है वो ओशो से आ रहा है. हम बस उसे गोल में कन्वर्ट कर दे रहे हैं - बस इतनी सी बात है !