सिद्धार्थ उपनिषद Page 92
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चेतना और आत्मा के बीच , चेतना और परमात्मा के बीच नाद ही सेतु है. ध्यान हो या साक्षी , समाधि हो या सुमिरन , नाद के बिना कुछ भी संभव नहीं. पतंजलि कहते हैं - " तस्य वाचकः प्रणवः ". परमात्मा का बोधक तत्व नाद है.
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ध्यान से प्रेम बढ़ता है. आत्मा का ध्यान आत्मा से और परमात्मा का ध्यान परमात्मा से प्रेम बढाता है.
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अंतराकाश का ध्यान आत्मस्मरण है. बहिराकाश का ध्यान हरिस्मरण है. जिसने अंतराकाश की जीवन्तता को जाना, वह आत्मज्ञानी है. जिसने बहिराकाश की जीवन्तता को जाना, वह ब्रह्मज्ञानी है.
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"शैले शैले न माणिक्यं , मौक्तिकं न हि गजे गजे . " अर्थात सभी पर्वतों में लाल नहीं मिलता , न ही सभी हाथियों में मुक्ता पाई जाती है . ठीक ऐसे ही संत के वेशधारी केशधारी बहुत हैं , पर सभी संत नहीं हैं . कबीर साहब कहते है - " भंवरजाल बगुजाल है , बूड़े बहुत अचेत . कह कबीर तिन बांचिहें , जिनके ह्रदय विवेक ." संत या गुरु की पहचान प्रज्ञा से होती है , प्रवचन से नहीं . विवेक से की जाती है , विद्वता से नहीं. अनुभव से होती है , वैभव से नहीं . भक्ति से होती है , भीड़ से नहीं.