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    सिद्धार्थ उपनिषद Page 68



    सिद्धार्थ उपनिषद Page 68


    (255)


    ऐसा भी मत समझना बस यही विश्व के मंगल के लिए काम कर रहे हैं. बुद्ध का एक अलग मिस्टिक ग्रुप है. सप्त-ऋषियों (वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक) का एक अलग मिस्टिक ग्रुप है. मेरा सौभाग्य है कि तीनों मिस्टिक ग्रुपों में मेरा आदर है,  बुद्ध का भी,  सूफियों का भी और सप्त-ऋषियों का भी. तो इसलिए मुझे कोई दिक्कत नहीं होती है. मैंने किसी को अप्रोच नहीं किया, सब खुदी स्वीकार कर रहे हैं.तुमको जानकार यह भी आश्चर्य होगा, कि पंच देव (इंद्रदेव,श्री गणेश,वरुणदेव,वायुदेव और अग्निदेव) भी मुझको उतना ही आदर देते हैं. मुझे क्या दिक्कत है, मुझे तो ओशोधारा का काम करना है, संघ का काम करना है. और संघ का काम क्या है ? गोविन्द का काम है. और मुझे गोविन्द के आध्यात्म को फैलाना है. अगर सब समर्थन देने को तैयार हैं,तो मूर्ख व्यक्ति होगा जो सहयोग न ले. मूर्ख कौन है ? जो दुसरे का सहयोग न ले. अकेला चना भाड़ फोड़ने की तैयारी करे, उसको मूर्ख कहते हैं. और प्रज्ञावान व्यक्ति कौन है ? जैसे गांधीजी - गाँधी जी को मैं बहुत प्रज्ञावान मानता हूँ. क्योंकि देश की आज़ादी के लिए उन्होंने संकल्प लिया और सबका सहयोग लिया.
    मेरा ख्याल है - औलिया!!!. कुछ बातें कह सकते हैं,  कुछ बातें नहीं कह सकते हैं. जितना कहा जा सकता है, मैंने कह दिया. जो अब नहीं कहा जा सकता उसको नहीं कहूँगा.    

    (256)


    चेतना और आत्मा के बीच, चेतना और परमात्मा के बीच नाद ही सेतु है. ध्यान हो या साक्षी, समाधि हो या सुमिरन, नाद के बिना कुछ भी संभव नहीं. पतंजलि कहते हैं - 'तस्य वाचकः प्रणवः '. परमात्मा का बोधक तत्व नाद है.

    (257)


    ध्यान से प्रेम बढता है. आत्मा का ध्यान आत्मा से और परमात्मा का ध्यान परमात्मा से प्रेम बढाता है. 

    (258)


    अंतराकाश का ध्यान आत्म स्मरण है. बहिरकाश  का ध्यान हरि स्मरण है. जिसने अंतराकाश की जीवंतता को जाना, वह आत्मज्ञानी. जिसने बहिराकाश की जीवंतता को जाना, वह ब्रह्मज्ञानी.

    (259)


    'शैले-शैले न माणिक्यं, मौक्त्त्तिकम् न हि गजे-गजे.'
    अर्थात् सभी पर्वतों में लाल नहीं मिलता, न ही सभी हाथियों में मुक्ता पाई जाती है.ठीक ऐसे ही संत के वेशधारी, केशधारी बहुत हैं, पर सभी संत नहीं हैं.  कबीर साहब कहते हैं - ' भंवरजाल बगुजाल है बूडे बहुत अचेत,  कह कबीर तिन बांचिहें, जिनके ह्रदय विवेक '.

    (260)


    संत या गुरु की पहचान प्रज्ञा से होती है, प्रवचन से नहीं. विवेक से की जाती है, विद्वता से नहीं. अनुभव से होती है, वैभव से नहीं. भक्ति से होती है, भीड़ से नहीं. धर्म में शोषण के लिए कोई स्थान नहीं है, चाहे वह धन को हो या यौन का . हमारी दृष्टि में प्रेम जितना वन्दनीय है, बलात्कार और शोषण उतना ही निंदनीय है. प्रेम दायित्व है, शोषण दायित्वहीनता है. प्रेम दान है, शोषण लूट है. प्रेम संवेदनशीलता है, शोषण संवेदनहीनता है. प्रेम वरदान है, शोषण अभिशाप है. माना कि शोषण की अधिकतर खबरें बढ़ा-चढाकर पेश की जा रही हैं, या बदनाम करने के उद्देश्य से प्रचारित कि जा रहीं हैं. फिर भी साधकों को विवेकपूर्ण एवं सावधान रहने की जरुरतहै.


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