सिद्धार्थ उपनिषद Page 44
सिद्धार्थ उपनिषद Page 44
(165)
साधना के मुख्यतः दो मार्ग हैं - निवृत्ति और प्रवृत्ति. आत्म सुमिरन निवृत्ति मार्ग है. हरि सुमिरन प्रवृत्ति मार्ग है. साक्षी सुमिरन में दोनों का योग है. इसलिए इसे संवृत्ति मार्ग, संवृत्ति योग या संवृत्ति सुमिरन भी कहा जा सकता है. संवृत्ति सुमिरन में आती सांस में हरि का तथा जाती सांस में आत्म सुमिरन किया जाता है. आती सांस में हम परमात्मा के द्वार तक पहुँचते हैं, जाती सांस में परमात्मा हमारे द्वार पर आता है. आती सांस में हम परमात्मा को प्रेम करते हैं, जाती सांस में परमात्मा हमें प्रेम करता है. आती सांस के साथ हम प्रेम से भरते हैं, जाती सांस में आनंद से भर जाते हैं. यह अदभुत मार्ग है और सुमिरन की पिछली सारी विधियों से अधिक प्रभावशाली है. संवृत्ति योग सहज योग का उत्कर्ष है.
(166)
मोक्ष क्या है? जनक ने अष्टावक्र से पुछा - " कथं ज्ञानं? कथं मुक्तिं? कथं वैराग्यं?" अर्थात ज्ञान क्या है? मुक्ति क्या है? वैराग्य क्या है? अष्टावक्र कहते हैं - " आपदः सम्पदः काले दैवादैवेति निश्चयी. तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यम् न शोचति न कांक्षति." यह सदानंद की अवस्था है. मुक्त व्यक्ति जानता है कि दुःख और सुख दैव योग से अपने समय पर आते-जाते रहते हैं. मुक्त व्यक्ति स्वयं में अर्थात् अपनी आत्मा में तृप्त होता है. इसलिए न वह विगत के लिए शोक करता है, न आगत के लिए कामना करता है.
(167)
प्रेम दिव्य है. प्रेम श्रद्धा का सोपान है. प्रेम प्रभु का द्वार है. प्रेम में देने का भाव है. प्रेम में विरह है. प्रेम में मिलन का आनंद है. प्रेम में अहोभाव है. प्रेम में निष्कामता है. प्रेम में सदभाव है.