सिद्धार्थ उपनिषद Page 43
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मनुष्य एक वृक्ष की तरह है. एक वृक्ष तीनों दिशाओं - आकाश, पाताल और भूतल में विकसित होता है. ठीक उसी तरह मनुष्य तीन दिशाओं में विकसित हो सकता है. आत्मा उसका पाताल है, परमात्मा उसका आकाश है और संसार उसका भूतल है. आत्मा में हम ध्यान और समाधि के द्वारा, परमात्मा में सुमिरन के द्वारा और संसार में प्रज्ञा एवं प्रेम के द्वारा विकसित होते हैं.
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निंदा और आलोचना में बहुत अंतर है. निंदा subjective है, आलोचना objective है. निंदा का संबंध व्यक्ति से होता है, आलोचना का संबंध व्यक्ति के गुण-दोष से होता है. निंदा का उद्देश्य किसी व्यक्ति को नीचे गिराना है, आलोचना का संबंध उसे ऊपर उठाना है. समालोचना में हम किसी व्यक्ति के गुण और दोष दोनों का विचार करते हैं.
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सुमिरन चार प्रकार से किया जाता है - (1) कंठ से, (2) मन से, (3) ह्रदय से एवं (4) साक्षी होकर. कंठ से सुमिरन का अर्थ है बोलकर सुमिरन, बोलकर प्रभु की याद, कीर्तन. मन से सुमिरन का अर्थ है प्रभु के नाम और रूप का मनन करते हुए सुमिरन. ह्रदय से सुमिरन का अर्थ है प्रेम से भरकर प्रभु की याद. ये तीनों प्रकार के सुमिरन संत वाणी में वर्णित हैं. साक्षी सुमिरन ओशो का मौलिक अनुदान है. इसका अर्थ है आत्मस्मरण के साथ हरि का सुमिरन. यह सर्वाधिक प्रभावशाली है.