सिद्धार्थ उपनिषद Page 31
सिद्धार्थ उपनिषद Page 31
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त्याग और निरोध में बड़ा अंतर है. त्याग में त्यागी त्याज्य तक नहीं जाता, जबकि निरोध में त्याज्य त्यागी तक नहीं जा पाता . त्याग में जीवन का केन्द्र आकार है, निरोध में जीवन का केन्द्र निराकार है. त्याग में चेतना बहिर्केंद्रित होती है, निरोध में चेतना स्वकेंद्रित होती है. त्याग सिकुडाता है, निरोध फैलाता है. त्याग दमन में ले जाता है, निरोध परमात्मा में ले जाता है.
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आत्मा बहुआयामी है. वह अंतराकाश है- जिसमें नाद, नूर, अमृत, ऊर्जा, शक्ति, उमंग, गंध, स्वाद, खुमारी, स्पर्श, आनंद, प्रेम अदि तत्व ज्ञेय के रूप में हैं, और चैतन्य तत्व ज्ञाता के रूप में है. दूसरे शब्दों में कह सकते हो कि आत्मा ज्ञाता, ज्ञेय और अंतराकाश का संगम है.
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साधना का उद्देश्य है आकाश की जीवंतता को महसूस करना. इसके लिए जरूरी है कि पहले घटाकाश की जीवंतता को जानो, फिर बहिराकाश की जीवंतता को पहचानो. हम परमात्मा से घिरे हैं, इसकी सतत अनुभूति सुखदा है, वरदा है, मंगलमय है.
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अस्तित्व शाश्वत है, लेकिन नित-नूतन भी है. वह सदा मंगलमय है, लेकिन नित मंगलमय भी है. वह निराकार है, लेकिन प्रकृति उसका प्रकट रूप है. प्रक्रति की नवीनता ब्रह्म की नवीनता है. 'नूतनं-नूतनं पदे-पदे ' यह ब्रह्म की परिभाषा है. जो इसे जान लेता है, वह सदा उमंग में जीता है.
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मैं और तू द्वैत है. मैं का गिर जाना अद्वैत है. अद्वैत में मैं नहीं बचता, तू ही बचता है. आत्मज्ञान में अहंकार तो नहीं ही बचता, अस्मिता भी नहीं बचती, केवल आत्मा बचती है. अद्वैत में आत्मा का भी अलग अस्तित्व नहीं बचता. केवल परमात्मा बचता है.