सिद्धार्थ उपनिषद Page 14
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परमानंद की अनुभूति निर्वाण है. प्रेमानंद की अनुभूति गोविन्द पद है.
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संबोधि का शिखर निर्वाण है. भक्ति का शिखर गोविन्द पद है.
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संत के दो मुख्य लक्षण हैं - तथाता और प्रेम. क्रोध नहीं करना तथाता है. दूसरे को सांसारिक अथवा आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा देना प्रेम है.
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संत की वाणी मधुर और प्रेरक होती है. उसके जीवन में शोक या मोह नहीं होता. वह निर्भय एवं निष्काम होता है.
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धर्म के नाम पर धोखाधड़ी बहुत है. कहीं प्रभु कृपा का प्रपंच है, कहीं गुरु कृपा का गोरखधंधा है. कहीं मंत्र का मायाजाल है, कहीं दुःखमुक्ति का झूंठा आश्वाशन है. आश्चर्य है कि असली फूलों की जगह नकली फूलों के ग्राहक ज्यादा हैं. ऐसे में किसी कामिल मुर्शिद का मिलना आंठवे आश्चर्य से कम नहीं.
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अतीत में जीना दुःख है. भविष्य में जीना सुख है. वर्तमान में जीना आनंद है. गहरी सांस वर्तमान में लाती है. इसलिए सभी आध्यात्मिक परंपराए सांस की साधना पर बल देती हैं. बुद्ध की परंपरा अनापानसतीयोग को मुख्य साधना बताती है. गोरख-कबीर-नानक की परंपरा सांस-सांस में सुमिरन का निर्देश देती है.