सिद्धार्थ उपनिषद Page 05
*****( साधना - सूत्र )*****
सिद्धार्थ उपनिषद Page 05
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साक्षी का अर्थ तटस्थता नहीं,आत्मा की निष्टता है,इन्वोल्वमेंट है,जैसे साक्षी होकर संगीत सुननेका अर्थ है कि अपने निराकार के तल से संगीत सुनो.फिर तो कान,मन,ह्रदय स्वतः ही संगीत सुनने में लग जाएँगे.साक्षी का अर्थ है कि जो भी कर रहे हो,अपने निराकार को भी सम्मिलित करो.कृष्ण के 'योगस्थ कुरु कर्माणि'का यही तात्पर्य है.
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क्या तुम्हे अतृप्ति का एहसास होता है ? क्या जाने-अनजाने कुछ तुम 'मिस'करते हो ? इसका मतलब तुम परमात्मा से अभी दूर हो.परमात्मा के पास आने का एक ही तरीका है-सुमिरन.सुमिरन कि जो विधि तुम्हे बताई गयी है,उसका अभ्यास अधिक से अधिक करो.तुम तृप्त ही नहीं,बल्कि निहाल हो जाओगे.सुनो,गुरु अर्जुनदेव क्या कहते हैं--'सिमर सिमर सिमर नाम जीवा,तन मन होय निहाला.'
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जिसे मंगलमय और समर्थ समझते हैं,हम उसी कि शरण जा सकते हैं.यदि तुम समझते हो कि गुरु समर्थ और मंगलमय है,तभी तुम गुरु कि शरण जा सकते हो.यदि तुम समझते हो कि परमात्मा समर्थ और मंगलमय है,तभी तुम परमात्मा कि शरण जा सकते हो. ऐसे ही यदि तुम समझते हो कि संघ समर्थ एवं मंगलमय है,तभी तुम संघ कि शरण जा सकते हो.गौतम बुद्ध कहते हैं कि बिना गुरु,गोविन्द और संघ कि शरण गए,तुम्हारा निस्तार नहीं है--'बुद्धं शरणं गच्छामि,धम्मं शरणं गच्छामि,संघं शरणं गच्छामि.'
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करने का मजा लेना साक्षी है.मिटने का मजा लेना ध्यान है,जीने का मजा लेना सुमिरन है.मरने का मजा लेना समाधि है.
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वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है.वर्तमान अतीत एवं भविष्य का संगम नहीं है.वर्तमान कालातीत है.वर्तमान परमात्मा से भरा आकाश है.वर्तमान परमात्मा है.वर्तमान में होने का मजा लेना तथाता है.
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अस्तित्व मंगलमय है.सारी विसंगतियों के बावजूद परमात्मा सृष्टि को मंगलमय दिशा में लिए जा रहा है.सुख हो कि दुःख,हार हो कि जीत,प्रतिकूल हो कि अनुकूल,प्रभु हमें मंगल कि ओर लिए जा रहा है.यह भरोसा ही भक्ति है.यह अनुभूति ही परमगति है.यह स्थिति ही परमपद है.